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जंगली मैं पवन पागल, घूमती उद्भ्रान्त सी–
हर गली, कानन, शहर और अट्टालिका में 
कुछ अकिंचन झोपड़ी में, बाग़-उपवन . . . 
मैं कभी हूँ मन्द कोमल, 
तोड़ती हूँ बंधनों को मुक्त मैं, हर पाश से, 
बाधित करे मेरी प्रगति, बन के बवंडर . . .
क्यों बँधूँ मैं बंधनों में? 
मैं सदा उन्मुक्त हूँ अपनी डगर, 
अपनी नज़र, अपनी दिशा में . . .
सैकड़ों दीवार चुन दी है ज़माने ने, 
मुझे बंदी बना कर रख दिया, बर्बाद कर के 
क्यों बने अवरोध मेरे मार्ग में? 
मैं क्यों बँधी हूँ लाज-मर्यादा, समाजी न्याय से? 
वेग मेरा तोड़ता दीवार, 
बाँधी गुरुजनों ने गिर्द मेरे, युग-युगों से . . . 
मैं खड़ी हूँ प्रश्न सी, इन बेड़ियों के सामने, 
हर पाश को दूँगी चुनौती, शक्ति जितनी पास मेरे, 
क्यूँ नहीं मैं नीतियों को तोड़ कर, 
इक राह अपनी ख़ुद बना सकती यहाँ पे? 
मान्यताओं का वरण मैं क्यों करूँ? 
यदि रौंदती हैं, ये मेरे व्यक्तित्व, मेरी जिजीविषा को? 
मैं नहीं हूँ स्वर्ण या फिर लौह जिसको ढाल, 
दें इक रूप में, कुछ ताप और प्रहार देकर। 
मैं यहाँ हूँ इसलिए, 
बदलूँ, सही कुछ कर सकूँ त्रुटियाँ— 
चली हैं पीढ़ियों से, सतत, शाश्वत . . . 
आज तक पिसती रही आदर्श पर, 
कर्तव्य पर या भावना पर, 
क्यों छली जाती रही हूँ मैं, 
नहीं कोई इतर, जो है यहाँ पर? 
क्यों मुझी से पूछते हैं लोग– 
मैंने क्यों चुनी ये राह, 
जिसमें ठोकरें पग-पग, 
निरी बदनामियों का मार्ग दुस्तर? 
क्यों मेरी ही बाध्यता है, 
मैं भी चलूँ उस मार्ग पर, 
जिस पर चली हैं पीढ़ियाँ, 
बस मूक बनकर? 
राह मैं ख़ुद की बनाऊँ क्यों नहीं? 
कुछ नियम अपने मैं 
बना सकती नहीं क्यूँ मैं यहाँ पर? 
बुद्धि क्या बस पूर्वजों में थी हमारे? 
आज के मानव सभी निर्बुद्धि हैं क्या इस धरा पर? 
क्यों नहीं कुछ पद्धति, 
ख़ुद की बना सकते यहाँ पर? 
आज कुछ बदलाव, 
कुछ ताज़ी हवा, 
कुछ नियम नूतन हैं अपेक्षित . . . 
दे सकें जो ऊर्जा 
बदले समय की पौध को या 
पीढ़ियों को आज के दिन? 
मैं बनूँ परिवर्तनों का आदि, ध्वज वाहक 
जगत को कुछ बदल पाऊँ, 
मिलेगी साँस कुछ इंसानियत को . . .
है घुटन, दुर्गन्ध थोथी मान्यताओं की 
नहीं कोई ज़रूरत है यहाँ पर . . .
खींच लाओ इस धरा पर, 
है कहीं यदि स्वर्ग कोई,
 लोग सपने देखते हैं जिस समय के, 
जिस काल के मिल नित्य-नूतन . . . 
है किसी में शक्ति जो, 
बाँधे पवन के वेग को, 
करदे पराजित अंधड़ों को? 
मुक्त मैं, उन्मुक्त हूँ, निर्बंध, 
युग-युग बंधनों से,
ग्रंथियों से, मैं परे हूँ, 
सूर्य की किरणें, अग्नि का ताप, 
जल का वेग, कण कण रेत—
कोई पढ़ सका है क्या यहाँ पर? 
है असंभव रोक पाना, प्रलय के बादल, 
समुन्दर, जल प्रलय की, इन घेनेरी बिजलियों को, 
मत करो प्रयास, निष्फल श्रम, 
रुको तुम व्यर्थ में क्यों रोकते हो वेग मेरा है, अप्रतिहत . . . 

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