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इक्कीसवीं सदी का कौशल

दुनिया ने इतनी तरक़्क़ी कर ली है, जितनी की ज़रूरत नहीं थी। असावधानी में ऐसा हो गया। जैसे कभी-कभी आप असावधानी में उतना खा जाते हैं जितने की ज़रूरत नहीं होती। इतनी तरक़्क़ी के बाद कुछ चीज़ें तो पहले जैसी नहीं ही रहनी थी सो न रहीं। वैसे ही आजकल दुनिया में जवाब देने के तरीक़े भी मॉर्डन हो चले हैं। कामदेव ने जीवन भर कुँआरा रहने की क़सम खाई थी मगर अपने दुश्मन वामदेव के विवाह के जवाब में कामदेव ने भी विवाह कर लिया। मुझे मिले तो मैंने पूछा, “भाईसाब आपने जो क़सम खाई थी अविवाहित रहने की वह तो टूट गई।” 

“क़सम की क्या बिसात जवाब के सामने। वह भी जब दुश्मन को देना हो।” 

“अरे नहीं भाईसाब क़सम तो क़सम होती है। तोड़ी नहीं जाती।” 

“देश में इतनी तरक़्क़ी हो चुकी है कि छोटी-मोटी तोड़-फोड़ का तो पता ही नहीं चलेगा। वह तो तरक़्क़ी का ही पार्ट है, मान लिया जाएगा।” 

“आपका क़सम तोड़ना किस तरह पार्ट हुआ?” 

“देखिए, जैसा कि दुश्मनों में प्रायः होता है हम दोनों कभी दोस्त थे। साथ रह कर पढ़ाई की। वह भी फ़ेल। मैं भी।” 

“ओह!” 

“ओह नहीं वाह! हम दोनों साथ नक़ल की कोशिश करते। साथ पकड़े जाते। साथ फ़ेल होते। साथ कुटते-पिटते। इससे हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गई। आगे चल कर हमने कैरियर बनाने के लिए हाथ-पाँव बहुत मारे मगर इसका नतीजा यह हुआ कि हमसे तंग आ कर घर वालों के हाथ तो कभी पाँव हम पर ही मारे जाने लगे। हम दोनों के घर वालों ने एक दूसरे की संगति को दोष दिया लिहाज़ा उसने मुझसे और मैंने उससे, दूरी बना ली। फिर मुझे अयोग्य मानते हुए, वह स्वयं राजनीति में उतर गया।” 

“मगर तरक़्क़ी के पार्ट वाली बात तो रह गई ना!” 

“राजनीति का पार्ट तो हुई ना!” 

“कैसे?” 

“राजनेता ही बताते हैं कि तरक़्क़ी मची है देश में।” 

“ओह! मगर दोस्त ने बुरा किया आपके साथ। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।” 

“अरे वो क्या बुरा करता, बुरा तो मैंने किया।” 

“कैसे?” 

“घोर बेकारी के दिनों में हमने एक दूसरे से वादा किया था कि कभी शादी नहीं करेंगे।” 

“इसकी क्या ज़रूरत पड़ गई?” 

“दरसल उन दिनों हमारी तंगहाली को देख लड़कियाँ हमें घास नहीं डालतीं थीं। उनको जवाब देने के लिए ही हम दो दुखियों ने आपस में वादा किया कि किसी भी लड़की को अपने जीवन में स्थान नहीं देंगे और चिर कुँवारे रहेंगे।” 

“अच्छा! फिर क्यों कर ली?” 

“मैंने देखा मित्र बहुत छा गया है राजनीति में, बड़ा आदमी हो गया है। उसकी कार में एक सुंदर बनाई गई स्त्री लोड थी। स्त्री पर बहुत सी ज्वेलरी लोड थी। मैं समझ गया मित्र ने वादा तोड़ दिया है। अगले दिन मैंने भी वादा तोड़ दिया और शादी कर ली। मैंने उसे जवाब दे दिया।” 

“वाह! बहुत ख़ूब।” 

“यह तो कुछ भी नहीं। मैंने उसे आगे भी हर बात का जवाब दिया।” 

“कैसे?” 

“उसने लग्ज़री में रह कर तोंद बढ़ा ली।” 

“बढ़ जाती है अपने आप ही भाईसाब। कोई उस पर मिट्टी थोड़े थोपता है।” 

“मगर मैंने थोपी।” 

“मिट्टी?” 

“नहीं, चर्बी की परत दर परत।” 

“बड़ा आसान है। कुछ न करने से, चढ़ जाती है।” 

“नहीं नहीं यह बिल्कुल भी आसान नहीं है। बिना स्वाद को तवज्जोह दिए ठूँस कर खाओ और घर में अधिक से अधिक ठहर कर किचिन में गाया जा रहा बेसुरा गाना सुनो। तब कहीं कुछ सफलता मिलती है।” 

“सेहत के साथ आपने खिलवाड़ क्यों किया, इस ज़रूरी सवाल पर आपका ध्यान नहीं गया।” 

“आप सवाल को छोड़िए। यह देखिए, मैंने उसकी तोंद का जवाब तोंद से दिया।” 

मैं उनकी इस जवाब देने की कला की क़ायल हूँ। मेरा प्रस्ताव है इसे इक्कीसवीं सदी के कौशल में गिना जाना चाहिए। क्या इज़्ज़त का सवाल था? क्या सेहत का सवाल था? नहीं। सवाल तो जवाब का था! 

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