फ़िज़ां में इस क़द्र है तीरगी अब
शायरी | ग़ज़ल डॉ. शोभा श्रीवास्तव15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
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फ़िज़ां में इस क़द्र है तीरगी अब।
नज़र आती नहीं है रोशनी अब॥
कभी पैमाने की आहट से बेख़ुद,
मगर महवे तले तिश्नालबी अब।
मुझे आवाज़ मत देना कभी तुम,
पता मेरा नहीं कुछ भी, कहीं अब।
शनासाई थे जो हालत से मेरी,
मगर लगते वो हैं क्यों अजनबी अब।
जफ़ा ने तुमको काफ़िर कर दिया है,
वफ़ा अपनी मगर है बंदगी अब।
ज़माना है तमाशाई तो क्या है,
तमाशा बन गयी ख़ुद ज़िंदगी अब।
हुआ है जबसे शामिल नाम उनका,
मुकम्मल हो गयी है शायरी अब।
निकाला था जिसे चौखट से बाहर,
वही घर में बना है बेबसी अब।
कभी तक़दीर से पूछो ज़रा तुम
भला क्यों दूर है मुझसे ख़ुशी अब।
गली में गूँजती है अब भी पायल,
कहीं दिखती नहीं है बाँसुरी अब।
हमें ‘शोभा’ महज़ तुम पर यक़ीं था,
मगर दुनिया से कम तुम भी नहीं अब।
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