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मेरे अंदर का लेखक

मेरे अंदर का लेखक
जूझता है माहौल से
परिस्थितियों से
क़लम की तलवार से
जब चीरता है वक़्त को
तब टुकड़ा-टुकड़ा चंद लम्हे
बिखर जाते हैं डायरी के पन्नों पर
 
मेरे अंदर का लेखक
बहुत शर्मिंदा है
घुट रही, मिट रही मानवता से
चीत्कार करती हुई व्यवस्था से
 
जीवन की आपाधापी में
सुख की कामना करता
मेरे अंदर का लेखक
ढूँढ़ता है सुकून के दो पल
 
मेरे अंदर का लेखक
रात भर अँधेरों की काट-छाँट करता है
और सूरज को सिल कर टाँग देता है
आकाश में
और जब टपकती है
सूरज की रोशनी
तब अपने कमरे में लगे
बिजली के बल्ब को
रख देता है आँगन में
 
मेरे अंदर का लेखक
तिलमिला जाता है
जब किसी बाग़ में
उसकी पसंद के
सबसे ख़ूबसूरत फूल को
कोई और तोड़ लेता है
मेरे अंदर का लेखक
भागता है डाली में चिपकी हुई
बची-खुची ख़ुश्बू को
हथेली में क़ैद कर लेने के लिए
 
मेरे अंदर का लेखक
कई बार टूटता है
ज़िन्दगी को किसी फटे-पुराने कपड़े की तरह
उतार कर रख देना चाहता है
किसी पुरानी संदूक में
अलमारी में बंद कर देना चाहता है
अधपके सपने। 
 
मेरे अंदर का लेखक
जब-जब झूठ के ख़िलाफ़
आवाज़ बुलंद करता है
तब-तब उसे
ख़ामोशी के पिंजरे में
क़ैद कर दिया जाता है। 
 
मेरे अंदर का लेखक
अक़्सर जूझता है
उन तमाम सवालों से
जो छुपा दी जाती है
किसी काली चादर में
तब वह अक़्सर निशाने पर होता है
 
भीतर ही भीतर बेचैन
मेरे अंदर का लेखक
थोड़ी सी नींद चाहता है
रात भर के लिए
ज़िन्दगी से तमाम गंदगी को साफ़ कर
अपने रहने लायक़ जगह ढूँढ़ना चाहता है
 
मेरे अंदर का लेखक
बचाना चाहता है अपनी डायरी और पेन
घूरती हुई नज़रों से
 
मेरे अंदर का लेखक
किसी अदृश्य पिंजर में क़ैद होता है
और उड़ जाना चाहता है
लोहे के सीखचों को अपनी मुट्ठी में दबाए
 
मेरे अंदर का लेखक
तमाम विरोध के बावजूद
लिख लेता है
आने वाले समय के लिए
एक बेहद ख़ूबसूरत कविता। 

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