ग़मनशीं था मयकशी तक आ गया
शायरी | ग़ज़ल डॉ. शोभा श्रीवास्तव1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
2122    2122    212
 
ग़मनशीं था मयकशी तक आ गया 
होश में था बेख़ुदी तक आ गया
 
तीरगी कब तक भला तू रोकती 
देख ले मैं रोशनी तक आ गया
 
क्या हुआ गुमराह था कुछ देर वो
आदमी था आदमी तक आ गया
 
चीरकर पर्वत को राहों के सभी 
एक जुगनू चांदनी तक आ गया
 
ओस की मानिंद फिसला फूल से 
एक लम्हा इक सदी तक आ गया
 
चल रहे हैं तीर यूं ज़ज़्बात पर 
प्यार मानो ख़ुदकुशी तक आ गया
 
छत को तेरे देखता है बारहा 
इक बेचारा बेकली तक आ गया
 
 तिश्नगी नदियों पे अब क़ाबिज़ हुई 
और सागर तिश्नगी तक आ गया
 
छीन कर हक दूसरों का जो बढ़ा
एक दिन वह कमतरी तक आ गया
 
बाग़ में आई न वो कल शाम तो 
आज मैं उसकी गली तक आ गया
 
झेलकर दुनिया के सब जुल्मो सितम
 मैं तो ' शोभा' ख़ीरगी तक आ गया
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