करूँगा क्या मैं अब इस ज़िन्दगी का
शायरी | ग़ज़ल डॉ. शोभा श्रीवास्तव1 Apr 2025 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बहर: 1222 1222 122
यहाँ आलम दिखे बस बेबसी का।
करूँगा क्या मैं अब इस ज़िन्दगी का।
रिवायत में मगन हर शख़्स दिखता,
ज़िक्र चलता नहीं अब आदमी का।
तिज़ारत कर न खि़दमत में यहाँ तू,
नहीं है क़ायदा ये बन्दगी का।
सँभलकर ही सदा रहना सफ़र में,
बहुत ख़तरा यहाँ है रहज़नी का।
न मैं राधा न तुम किशना मुरारी,
करोगे क्या कहो फिर बाँसुरी का।
सुना है आपकी बस्ती में 'शोभा',
असर दिखता नहीं है दुश्मनी का।
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