हमें अब मयक़दा म'आब लगे
शायरी | ग़ज़ल डॉ. शोभा श्रीवास्तव15 Apr 2024 (अंक: 251, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
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तेरी रहमत तो लाजवाब लगे।
असर इतना कि बेहिसाब लगे।
तेरी नज़रों को जब पढ़ा हमने।
वो तो दिलकश कोई क़िताब लगे।
घड़ी भर में बदलते हैं चेहरे
बदल बदल के ज्यों नक़ाब लगे।
कहीं पर भी नहीं चमन ऐसा,
बिना काँटे जहाँ गुलाब लगे।
लिबास हो सादगी भरा जिसका
नज़र उसकी तो इंतिसाब लगे।
रहे अब क्यों गरज जहाँ से हमें
हमें अब मयक़दा म'आब लगे।
अभी चुप हूँ तो इसलिए 'शोभा'
वक़्त कुछ इन दिनों ख़राब लगे।
इंतिसाब= समर्पण; म'आब= वापसी की जगह
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