ख़ामोशियाँ बोलती हैं
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र 'कबीर'1 Oct 2021 (अंक: 190, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
यह सच है कि तुम बोलते कुछ नहीं
बस तुम्हारी ख़ामोशियाँ बोल जाती हैं
सामने आते हो मेरे जब भी कभी
होंठों पे हल्की सी मुस्कान खेल जाती है।
मन में चलता है तुम्हारे द्वंद्व कि क्या करें
किस तरीक़े से बात हम तक पहुँचाएँ
फिर इस चिंता में जज़्ब करते हो ख़ुद को
कि कहीं बात ज़माने में न खुल जाए।
और इधर मैं कहता हूँ कि तांडव अगर
होना है तो आज, इसी वक़्त हो जाए
छिन्नभिन्न हों सृष्टि के सारे क़ायदे
प्रलय में भी प्रेम की फ़सल लहलहाए।
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