सबसे ख़तरनाक ज़हर
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र 'कबीर'1 Feb 2022 (अंक: 198, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
वो बहुत अच्छे से जानते हैं
कि ज़हर की कितनी मात्रा रोज़ देने से
मर जाती हैं एक इंसान की संवेदनाएँ
दूसरे इंसानों के लिए,
कितनी मात्रा का सेवन कर इंसान
घृणा एवं नफ़रत में अंधा हो
ख़ुद को समझने लगता है श्रेष्ठ
और दूसरे समुदाय के लोगों को
कीड़े-मकोड़ों से भी बदतर,
वो बहुत अच्छे से जानते हैं
कि ज़हर की कितनी मात्रा पर्याप्त होगी
इंसान की विद्या-बुद्धि एवं तर्क-शक्ति नष्ट करके
उसे आत्मघात की अवस्था में पहुँचाने के लिए,
कितने समय तक ज़हर देने से
वो पैदा कर देंगे किसी इंसान में
दूसरे लोगों को नृशंसता से हत्या कर
इतिहास में सदा के लिए अमर होने
या फिर जन्नत, स्वर्ग अथवा हैवेन
में जगह पाने का लालच और जुनून,
वो बहुत अच्छे से जानते हैं
कि इस तरह बचपन से ही थोड़ा-थोड़ा
ज़हर देते रहने से वो तैयार कर लेंगे एक दिन
विष-मानवों की एक सेना,
जिनके लिए मायने नहीं रखेगा
शिक्षा, स्वास्थ्य, रहन-सहन, रोज़गार
और कला का अच्छा स्तर,
अपने आक़ाओं के पक्ष में वो सेना
टूट पड़ेगी भूखे भेड़ियों की तरह
हर उस इंसान पर
जो विश्व शान्ति की बात करेगा,
जो इंसान-इंसान में नफ़रत और
भेदभाव मिटाने की बात करेगा,
जो आपसी प्रेम और भाईचारे की
बात करेगा,
जो तरक़्क़ी, ख़ुशहाली, न्याय,
जनहितकारी क़ानून, शिक्षा और
विकास की बात करेगा,
दुनिया के बाक़ी ज़हर एक बार में मारते हैं
कुछ इंसानों को एक बार में
लेकिन यह ज़हर मानसिक ग़ुलाम बनाकर
रोज़ थोड़ा-थोड़ा करके इंसानों के अंदर से उनकी
इंसानियत को ख़त्म करेगा,
तब पेट की भूख और जिस्म की हवस के आगे
ऐसे ग़ुलामों को कुछ नहीं दिखेगा,
बदल देंगे वो इस दुनिया को
एक ऐसे ख़तरनाक जंगल में
जिसमें केवल नरभक्षियों का राज चलेगा।
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