भविष्य की नाहक़ चिन्ता
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र 'कबीर'15 Jul 2021 (अंक: 185, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
ज़्यादातर पुरानी पीढ़ी का
है यह सोचना कि
थामा हुआ है उन्होंने आसमां,
नहीं रहेंगे कल को जो
तो टूट कर गिर जाएगा
अगली पीढ़ियों पर यह जहां,
लगे रहते हैं उम्र भर वो
अपना पेट काट-काटकर
उनके लिए धन-सम्पत्ति
करने जमा,
चाहे फिर वो बुढ़ापे में
सेवा-टहल करें ही न उनकी
और न बन पाएँ हमनवाँ,
कर देना चाहते हैं वो लोग
अपनी कई पीढ़ियों तक के लिए
बैठ कर खाने का भंडार जमा,
बिना यह सोचे कि जाने कैसा
लिखा गया हो
क़िस्मत में उनकी समां,
अपने बच्चों को अक़्सर वो
डराते रहते हैं भविष्य का
भयानक सा चित्र दिखा,
अपने दम पर कर सकते हैं
उनके बच्चे कुछ सही
होता नहीं इसका उनको भरोसा,
सोचते नहीं इतना सा वो
कि सिर पर पड़ जाए जिसके
जो बला,
उसे वो दे ही देता है अंजाम
थोड़ा बुरा या भला,
अपने बच्चों पर भरोसा
करने के लिए उन्हें देखना चाहिए
दीवार पर अपने बुज़ुर्गों का चित्र टँगा,
जो उनके बारे में भी सोचते होंगे
यही कि उनके बच्चे उनकी तरह
नहीं चला पाएँगे यह दुनियादारी का कारवां।
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