सभ्यता का कलंक
काव्य साहित्य | कविता जितेन्द्र 'कबीर'1 Apr 2022 (अंक: 202, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
बंदरों के झुंड का सरदार
अपनी शारीरिक शक्ति के बल पर
संसर्ग करता है
अपने झुंड की सभी मादाओं के साथ,
सिर्फ़ अपनी यौन-क्षुधा की ही
तृप्ति के लिए नहीं
बल्कि झुंड पर अपना वर्चस्व
स्थापित करने के लिए भी,
युद्ध में हारे हुए राजा की प्रजा को
ग़ुलाम अथवा यौन-ग़ुलाम बना कर रखने का
भी इतिहास रहा है दुनिया में,
हथियारबंद पुरुष,
एक सैनिक के रूप में हो,
आतंकी के रूप में हो,
दंगाई के रूप में हो
या फिर किसी भी ऐसे रूप अथवा परिस्थिति में हो
जिसमें उसे सज़ा का डर न हो,
समाज का डर न हो
स्वयं को अथवा उसके परिवार को नुक़्सान
का डर न हो
तो चुन लेता है बहुत बार
सामने पड़ गई स्त्री की मजबूरी का फ़ायदा उठा
उसके ऊपर बलात्कार करना,
सिर्फ़ यौन-क्षुधा की तृप्ति के लिए नहीं
बल्कि नारी जाति पर अपना
वर्चस्व स्थापित करने के लिए भी,
अपनी सांस्कृतिक मूल्यों एवं श्रेष्ठता के
तमाम दावों के बावजूद
स्त्री जाति पर लगातार बढ़ते यौन हमले
हमारे समाज में मौजूद पशु-प्रवृति के
जीते-जागते सबूत हैं,
धन-बल-पद-चालाकी-झूठ के बलबूते
किसी स्त्री से सम्बन्ध बना लेने को
अपनी जीत समझना
हमारी सभ्यता के माथे पर सबसे बड़ा
कलंक है।
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