अपनी-अपनी जगह
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Sep 2019
चलो जो होना था वो हुआ,
अच्छा हुआ जो हुआ।
न कुछ खोने की क़ूवत,
न तेरे बस में थी,
न मेरे बस में थी।
कितने मज़बूत थे,
हमारे सदियों के इरादे,
तो कमज़ोर होना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
हमें तो आज भी यक़ीन नहीं,
कैसे हम उन राहों से गुज़र गये,
जिनपे दो क़दम चलना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
बुझ गईं वो मशालें,
जो हमने जलायी थीं,
रस्मों-रिवाज़ों के ख़िलाफ़
अब उनको जलाये रखना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
कैसे नाम दें हम,
उन बेनाम जज़्बातों को,
जिनको नाम देना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
ठीक ही था,
जहाँ तुम रुक गये अपनों के लिए,
जहाँ मैं रुक गया था,
संजीदगी के लिए।
तो फ़ासलों को कम करना
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
न तुम मजबूर थे,
न मैं बेबस था,
तुम अपने जगह ख़ुश थे,
मैं अपनी जगह सही था।
शायद बेपरवाह होना,
न तेरे बस था,
न मेरे बस में था।
आख़िर कब तक,
एक-दूसरे की आदत की वज़ह बनते।
जब समझ ही लिया था हमने अपना दायरा,
तो यादों का दुःखड़ा रोना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
कौन किसे कितना जानता था
जो सच था।
तुम्हारा-मेरा दिल जानता था,
बस सच कहने की हिम्मत।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
हाँ! ज़रूर याद आ जाती है,
हमारे रूबरू होने की वारदातें,
तो सदमों को इतनी जल्दी भूल जाना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
जब हम आगे निकल चुके थे,
इस दुनिया की भीड़ से।
तो पीछे मुड़ कर देख पाना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
जो होता है ठीक होता है
सच हमेशा मासूम होता है,
बस इसे सही मान लेना।
न तेरे बस में था,
न मेरे बस में था।
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