एक तस्वीर
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
वो अँधेरा ही मुकम्मल था
ख़ुद में सिमट जाने के लिए
दीपक की तरह जलकर
हम हर जगह बिखर गए।
एक तस्वीर ही काफ़ी है
किसी की पहचान के लिए
लेकिन हमारी तस्वीर
तक़दीर की तरह थी
जिसकी सब रेखाएँ टेढ़ी-मेढ़ी ही निकलीं।
मैं रास्ता बन जाता
हर उन क़दमों का तो काफ़ी था
मैं मंज़िल न बनूँ ऐ ख़ुदा
जो किसी-किसी को मिले।
माँ-बाप की बेड़ियाँ
बहुत अच्छी थीं ए दोस्त
आज़ादी का जूता पहन कर
हम हर जगह ठोकरें खाते रहे।
पहचान लिए जाते हैं वह लोग
सूरज की धूप में
जिनके चेहरे रात की तरह होते हैं ।
यह कड़वा सच है
या कुछ और
जो हमारी शोहरत के दस्तूर थे
वही हमारी गुमनामी की वज़ह हो गये।
दर्द से मेरी बस इतनी ही सिफ़ारिश है
ज़रा एक-एक करके आना
अभी भी कुछ तमन्नाएँ मेरी ज़िंदा हैं।
एक बात मैंने
आज गाँठ बाँध ली
फिर कभी ज़िंदगी में
कोई गाँठ नहीं बाँधूँगा।
तुमने सही कहा था..
ज़िंदगी एक संस्कार है
जहाँ साँसों की रस्म निभाना
बहुत ही मुश्किल भरा है।
कितने बेबस थे पत्ते
अपने डालियों से बिछड़ने में
लेकिन तूफ़ान को इस दर्द का पता नहीं होता।
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