तालाब का पानी
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Nov 2021 (अंक: 193, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
1.
बहुत दिनों से,
ख़ुद के पास आने की
कोशिश कर रहा था।
मुझे क्या मालूम,
जिसमें मुझे रहना ही नहीं
मैं वो घर बना रहा था।
मैंने सपने चुन-चुन कर
तुम्हें अपना एक शहर बनाया था।
अफ़सोस यह है कि इतनी महँगाई में,
मैं तुम्हारा बाशिंदा कभी,
बन ही नही पाया था।
मैंने तुम्हें सर्द रातों की तरह
चाहा है,
अब इंतज़ार है . . .
तुम गर्म लिबास की तरह
मेरे जिस्म से लिपट जाओ।
2.
हर मुल्क की नयाब
सुबह,
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
विश्व धरा पर
बिखरी ओस का
अंतिम क्षण
बस वहीं
वहीं तुम हो।
हर नदी की
खिलखिलाहट
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
साँझ तले
जलते दीये की लौ के पास
झुकी हुई किसी बच्चे की मुस्कुराहट
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
पहाड़ों से गिरते
झरनों का अमर संगीत
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
खेतों की हरियाली!
फसलें,सूरजमुखी के झुके फूल
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
चीटियों की पगडंडियां
उनके सफर,
उनकी जिद्दोजहद।
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
गेहूँ की बालियों के
झुरमुटों से,
उड़ती अचानक नन्ही चिड़िया
सरसों के फूलों से
अठखेलियाँ करती,
तितलियों का बाँकपन
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
माँ के नरम,
हाथों की आँच
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
हालातों से टकरा कर
जब-जब मैं कहीं
स्वार्थी बना,
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
और ईमानदारी से
कहीं भी ख़ुद को जीता हुआ पाया
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
सच और झूठ के बीच
ये जो तर्क की दुनिया है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
और असत्य में
जितने सत्य हैं,
और सत्य में
जितने असत्य हैं
ये जो शाश्वत सामंजस्य है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
ये जो नया है,
पुराना है।
ये जो भौतिक है,
रासायनिक है
ये जो इन सबका नियम है
समय है न
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
न भूतो न भविष्यत्
जो होने वाला है
और जो होगा
वतर्मान बनकर!
बस वहीं,
वहीं तुम हो।
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