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धरती के लिए

जब-जब घिरता हूँ,
सवालों के घेरे में।
तब-तब झुक जाता हूँ,
धरती के सम शीतोष्ण फ़र्श पर।

 

जब-जब कोई प्रश्न पूछता है,
गगन के रहस्य से,
सहज गरदन झुक जाती है,
धरती के उत्तर आगोश में।

 

आकाश तो अपने,
भार पर अथाह रुका है।
और धरती स्मरण करा देती है,
मुझे अपने भार का।

 

आकाश ने छीना,
मेरा अस्तित्व।
जब-जब मैंने देखना चाहा,
गरदन मेरी टूट गयी।

 

बस धरती ने मुझे,
आश्रय दिया है निःस्वार्थ।
कहीं एक जगह खड़े होकर,
अपने आप को टटोल सकूँ।

 

मैं कल्पना नहीं करना चाहता,
असीमित गगन के सैलाब में।
वहाँ मेरा ज़मीर गुम हो जाता है।

 

उसके हृदय के सापेक्ष,
न मेरी औक़ात है,
और न मेरी क्षमता।
क्योंकि धरती ,
मेरे हिस्से की पहचान दे चुकी है।

 

मैंने घबराहट में,
स्थिर होना,
धरती से सीखा है।

 

मैंने कितनी चोट पर,
धूल जमानी,
धरती की धूल से मिटानी चाही है।

 

मैंने अपनी औक़ात को,
धरती के एक कोने में पसरा पाया है।
मैंने अपने दर्द को चलाना,
धरती पर क़दमों की भाँति चलाना चाहा है।

 

मैंने अपने आप को भुलाना,
धरती के एक टुकड़े में,
विस्मरण करना चाहा है।

 

और लोग कहते हैं,
मैं गरदन झुका कर क्यों चलता हूँ?

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