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सच चबाकर कहता हूँ

तुम्हारा पूछना,
भी हिसाब है,
एक वाक्य में।
कैसे हो तुम?
और इसके 
जवाब का आँकड़ा,
मेरे मुख पटल पर 
आ कर रुक जाता है।


कैसे कहूँ -
तुम्हारे स्पर्श के बिना,
हर चीज़ खुरदरी मालूम होती है!
इसलिए मैं छिल चुका हूँ,
और छिलता जा रहा हूँ।


तुम्हारी ख़ामोशी के बिना,
हर वो बात मुझे जला रही है।
इसलिए मैं जल चुका हूँ,
और जलता जा रहा हूँ।


तुम्हारे हाथों के बिना,
सुघड़ रोटी तवे पर 
जलने की गंध दे रही है।
इसलिए मैं भूखा हूँ,
और भूखा जा रहा हूँ।


तुम्हारे क़दमों के बिना,
यह आँगन, वो चूल्हा-बासन, 
यह दीये सूने हैं।
इसलिए मैं किसी कोने में 
सिमट चुका हूँ,
और सिमटता जा रहा हूँ।


तुम्हारे कंधों के बिना,
दीवारें भी सहारा नहीं देतीं,
आँखें भी उम्रदराज़ हो रहीं हैं।
इसलिए मैं दोहरा चुका हूँ,
और दोहराता जा रहा हूँ।


तुम्हारे आँचल के बिना,
यह रंजित शाम ललचा रही है।
इसलिए मैं बहक चुका हूँ,
और बहकता जा रहा हूँ।


तुम्हारे लिखे ख़त के बिना,
कोई बात मुझे टटोल रही है।
इसलिए मैं कविता लिख चुका हूँ,
और लिखता जा रहा हूँ।


तुम्हारे दुःख के बिना,
कुछ कवियों की पीड़ा सता रही है।
इसलिए मैं महादेवी, निराला पढ़ चुका हूँ।
औरों को पढ़ता जा रहा हूँ।

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