धारा न० 302
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Jun 2019
कहीं तो विस्मरण की,
सलाखों में क़ैद हूँ।
क्योंकि मैं मुजरिम हूँ।
मैं बार-बार सच की किरणों से,
मैंने महत्वाकांक्षी के अँधेरों की,
बार-बार हत्या की है।
इसलिए मैं मुजरिम हूँ।
सबूत के तौर पर,
मेरे इच्छाओं के फ़र्श पर,
मन के खून से लथपथ,
महत्वाकांक्षी पड़ा है।
सच के समाज में,
महत्वाकांक्षी का अभियुक्त,
नहीं जी सकता है।
क्योंकि ज़मीर का न्याय,
कमज़ोर पड़ जायेगा।
इसलिए मैं मुजरिम हूँ।
जिस-जिस महत्वाकांक्षी से,
मैंने रिश्ता रखना चाहा,
उसकी गाँठ में अपराध और अविश्वास बँधा,
जो मेरे सच को कमज़ोर करता रहा।
हर शिकायत से चोटिल किया गया,
कभी बात में,
कभी तर्क में,
मेरे सच को घायल किया गया।
कुछ परिचय में,
कुछ अनजाने में,
कहीं हाँ कहीं ना में,
मेरे सच को धोखा दिया गया।
मैं तंग हो गया था,
बार-बार अपने सच की,
अवहेलना को सहते-सहते।
हाँ मैं होश में हूँ,
जिस महत्वाकांक्षी ने,
मुझे कहीं का ना छोड़ा,
कहीं मैंने संस्मरण में इसकी हत्या कर दी।
हाँ मैं क़ैद हूँ,
जीवन की सलाखों में,
वर्ष गुज़र गये।
आज अनुभव की अदालत में,
शब्दों की दलील में,
इसकी सज़ा कम कर दी है,
ताकि जमी़र का न्याय ज़िन्दा रहे।
क्योंकि मैं मुजरिम था।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनंत पथ पर
- अनकही
- अनसुलझे
- अनुभव
- अनुभूति
- अन्तहीन
- अपनी-अपनी जगह
- अब कोई ज़िन्दा नहीं
- अब लौट जाना
- अस्तित्व में
- आँखों में शाम
- आईना साफ़ है
- आज की बात
- आजकल
- आदमी
- आदमी जब कविता लिखता है
- आयेंगे एक दिन
- आवाज़ तोड़ता हूँ
- इक उम्र तक
- उदास आईना
- उस दिन
- एक किताब
- एक छोटा सा कारवां
- एक तरफ़ा सच
- एक तस्वीर
- एक तारा
- एक पुत्र का विलाप
- एक ख़ामोश दिन
- एहसास
- कल की शाम
- काँच के शब्द
- काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता
- किनारे पर मैं हूँ
- कुछ छूट रहा है
- कुछ बात कहनी है तुमसे
- कुछ ख़त उसके
- कुछ ख़त मेरे
- कोई अज्ञात है
- कोई लौटा नहीं
- गेहूँ और मैं
- चौबीस घंटे में
- छोटा सा सच
- जलजले
- जीवन इधर भी है
- जीवन बड़ा रचनाकार है
- टूटी हुई डोर
- ठहराव
- तराशी हुई ज़िंदगी
- तहरीर
- तालाब का पानी
- तुम्हारा आना
- तुम्हारा एहसान
- दर्द की टकराहट
- दिन की सूनी पुरवाइयाँ
- दीवार
- दीवारों में क़ैद दर्द
- दो बातें जो तुमसे कहीं थीं
- द्वंद्व
- धरती के लिए
- धार
- धारा न० 302
- धुँध
- निशानी
- पत्नी की मृत्यु के बाद
- परछाई
- पल भर की तुम
- पीड़ा रे पीड़ा
- फोबिया
- बनकर देखो!
- बस अब बहुत हुआ!!
- बारिश और वह बच्चा
- बाज़ार
- बिसरे दिन
- बेचैन आवाज़
- भूख और जज़्बा
- मनुष्यत्व
- मरी हुई साँसें – 001
- मरी हुई साँसें – 002
- मरी हुई साँसें – 003
- मशाल
- माँ के लिए
- मायने
- मुक्त
- मुक्ति
- मृगतृष्णा
- मेरा गुनाह
- मेरा घर
- मैं अख़बार हूँ!
- मैं किन्नर हूँ
- मैं डरता हूँ
- मैं तुम्हारा कुछ तो सच था
- मैं दोषी कब था
- मैं दोषी हूँ?
- रास्ते
- रिश्ता
- लहरों में साँझ
- वह चाँद आने वाला है
- विकल्प
- विराम
- विवशता
- शब्द और राजनीति
- शब्दों का आईना
- संवेदना
- सच चबाकर कहता हूँ
- सच बनाम वह आदमी
- सच भी कभी झूठ था
- सपाट बयान
- समय के थमने तक
- समय पर
- समर्पण
- साॅ॑झ
- सफ़र (राहुलदेव गौतम)
- हादसे अभी ज़िन्दा हैं
- ख़ामोश हसरतें
- ख़्यालों का समन्दर
- ज़ंजीर से बाहर
- ज़िन्दा रहूँगा
नज़्म
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं