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ज़ंजीर से बाहर

देख लिया तुम्हारे वादों का मुकम्मल।
इससे तो बेहतर निकली,
मेरी एलआईसी की पॉलिसी।
जीवन के साथ भी...
जीवन के बाद भी।


मैं अक्सर उन लोगों से पीछे था।
जो यह कहते थे...
तुम बहुत धीरे चलते हो!
लेकिन मैं जानता हूँ,
मेरे दोनों पैरों पर ज़िन्दगी की बोझ था।


दरिया में डूबने वालों को,
ढूँढा जा सकता है।
लेकिन उनका क्या जो,
किसी की संवेदनाओं में डूब जाते हैं।


सबक़ तो हमारे यहाँ
फुटकर में भी मिल जाते है।
आज एक चीटीं ने भी बता दिया...
मंज़िलें मिलें या ना मिले
मगर चलते रहो।

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