बिसरे दिन
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
एक गली से कुछ धुल कुछ पहचान मिलती है
एक हवा बिखेरती है खोई हुई साँसें,
एक नदी है उसके पास एक जंगल मिलता है!
आवाज़ इधर भी है आवाज़ उधर भी है
टकराती है फिर लौट जाती है,
इस समय के आग़ोश में सिर्फ़ दीवार मिलती है!
सीढ़/सीलन फैल गई मेरे घर की जड़ों में बहुत पहले
जलती धूप की आँच पहुँची नहीं उसकी तह तक,
मेरे घर के बाहर मेरे पुरखों का निशां मिलता है!
वो सूखी लकड़ियाँ हैं वो सूखे बग़ीचे में अब,
न गायों के झुंड ठहरता है वहाँ न बासुरी की तान,
बस वहाँ एक ठूँठा आम का पेड़ मिलता है!
शायद मौत मुझसे बड़ी होगी, समय हमेशा छोटा होगा
इस धार-धार पर चल रही ज़िन्दगी में,
कहीं कोई भी शायद ही निश्चित मिलता है!
जिस रास्ते पर ठहरे थे कुछ बिसरे दिन,
दो कहानियाँ, दो किरदार, और दो पलकें
उस रास्ते से अब भीड़ गुज़रती है रफ़्तार से
मेरे गवाह के शक्ल में एक टूटा पुल मिलता है!
कुछ हादसे पहले हो जाते हैं एक परिवर्तन से
पकड़ कर हाथ समय का रोक दूँ जीवन को
सच बाँट दूँ जो मेरे चारों तरफ़ है,
पर हिसाब यह है कोई आगे कोई पीछे मिलता है!
सोचता हूँ सब कुछ कह दूँ पर कैसे? कोई सुनेगा नहीं
बैठकर मातम मना कर पहले उसका जो नहीं है,
घर के कुछ फ़ासले पर एक क़ब्रिस्तान मिलता है!
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