मैं दोषी हूँ?
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 May 2020 (अंक: 156, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
अगर मैं रात की तरह
ख़ामोश रहना चाहता हूँ
अगर मैं सितार की तरह
बोलना चाहता हूँ,
तो इसमें क्या ग़लत है
अगर मैं आग की तरह
जलना चाहता हूँ
हवाओं की तरह
बेख़ौफ़ चलना चाहता हूँ
तो इसमें क्या ग़लत है?
अगर मैं जर्जर दीवार की तरह
कभी गिरना चाहता हूँ
किसी पत्थर की तरह
नि:शब्द रहना चाहता हूँ
तो इसमें क्या ग़लत है?
अगर मैं बर्तन की तरह
जूठा होना चाहता हूँ
अगर मैं रद्दी काग़ज़ की तरह
फेंका जाता हूँ
तो इसमें किसी का क्या जाता है?
अगर मैं किसी भूखे की तरह
छटपटाना चाहता हूँ
मासूमों की तरह
बिलबिलाना चाहता हूँ
तो इसमें कहाँ किसी की इज़्ज़त जाती है?
अगर मैं किसी भीड़ में
कुचला जाता हूँ
अगर मैं किसी फ़रियादी की तरह
चिल्लाना चाहता हूँ
तो इसमें कहाँ किसी का जलसा
मातम में बदल जाता है?
अगर मैं किसी बूढ़े माँ-बाप की तरह
उनके आँसुओं की भाँति बहना चाहता हूँ
तो इसमें लोगों के शान में
बट्टा कहाँ लग जाता है?
अगर मैं किसी लाचार की तरह
डरना चाहता हूँ
अगर मैं किसी ख़ौफ़ में
साँसें समेटना चाहता हूँ
तो किसी के बाहुबल में
सेंध कहाँ लग जाती है?
अगर मैं अपनी मर्ज़ी से
जीना चाहता हूँ
अगर मैं किसी नासूर का
इलाज चाहता हूँ
अगर मैं चिंटियों की तरह
संघर्ष करना चाहता हूँ
अगर मैं भूख के लिए
अगर मैं परिवर्तन के लिए
अगर मैं समता-समानता के लिए
बेड़ियाँ तोड़ना चाहता हूँ
तो इसमें क़ानून
इसमें समाज का हनन
कहाँ हो जाता है?
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