फोबिया
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Jun 2019
मैं कब सुख से डरने लगा था।
उससे घिन आने लगी,
सुख के हर पहलू से।
मैं दूर हो जाना चाहता हूँ।
यह कब हुआ?
इसका अन्दाज़ा भी नहीं।
बस मैंने जाना है,
दुःख की वह घड़ी है,
जिसमें जीवन की गति,
महसूस हो आहिस्ता-आहिस्ता चला।
सुख ने मानवता को भ्रम में,
आजीवन ओझल रखा।
सुख ने जीवन को सदमा दिया,
जो मैं नहीं था,
मैं वह हो गया था।
सुख ने मुझे शाश्वत सच से,
जीवन के औचित्य से,
मीलों दूर झूठ के जाल में बाँधकर,
मुझे मनुष्य होने के,
अनुभव से दूर रखा।
आज सुख का,
स्मरण होने मात्र से,
साँसें फूलने लगती हैं।
हाथ-पांव ठंडे होने लगते हैं,
डर लगने लगता है,
कि कहीं और मुझे गुम न कर दे।
मैं जीना चाहता हूँ,
अपने दुःख के साथ।
मुझे... मुझे होने का एहसास होता है।
खुलकर साँसें लेता हूँ,
उसमें जीवन का ज़िन्दा होना,
समझ आता है।
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