सपाट बयान
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Apr 2021 (अंक: 179, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
तंत्र!
विश्व की परिधि पर
घूमता एक ऐसा
दोगला शब्द है,
जिसका हम
बेवजह गण बन बैठे है।
चाबुक से पनपते घाव को
सहने के लिए,
यह गण बँधुआ मज़दूर की तरह
अपने आप में,
घुटने टिकाए बैठे हैं
और न्याय की कुर्सी पर बैठे लोग
उसे निष्पक्षता का नाम देकर
उनके पीठ से यह चाबुक खींचते हैं
आजकल अंतपुर से
एक नया घिनौना शब्द
घूम रहा है जिसका नाम है
'दोगली इंसानियत'
जिसे उनके चाटुकार
दिन-रात रट रहे हैं
यह मेज़ों पर असमय
पसरा रहता है
कभी ख़ाकी वर्दी से
निकलते हैं चाँदी के जूते में
तुम्हारा काम हो जाएगा
आख़िर इंसानियत कब काम आयेगी!
फिर सिगरेट का धुआँ
नेताओं के तलवों में
आख़िर चाटने वाले
इंसानियत कब बचायेंगे
अफ़सरों के तुनकी रूआब में
न्यूज़ की हेडलाइन से
आख़िर इंसानियत के
नज़ीर कब होंगे!
कर्मचारियों के महत्वाकांक्षाओं में
उनके बच्चों को,
हाईप्रोफ़ाइल में लाना है
बाक़ी समाज को
तराजू की तौल पर आँकना है
इनके हिस्से की थाती अभी बाक़ी है
आख़िर इंसानियत के लिए
उसने सिस्टम को जोड़ा है
वातानुकूलित कमरे में
तो ठीक है सब सूने
बेवजह गण बन कर
इनके शाश्वत अर्थ की बखेड़िया
तब तक मैं आता हूँ
एक नये शब्द की नई
परिभाषा लेकर...
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