जलजले
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Apr 2020 (अंक: 153, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
इस जलजले में हवाएँ गुम हैं
सूरज भी कहीं गुमसुम है
सुनी है पत्तों की सरसराहट
सता रही काली रातों की आहट
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
सूनी है गाँव की पगडंडियाँ
तड़प उठी हैं सारी वादियाँ
आवाज़ क़ैद है दीवारों में
आसमां चुप है सितारों में
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
शहर-शहर तड़प उठे हैं
गाँव-गाँव फड़क उठें है
सड़कें बेहाल क्या कहूँ
लोगों का हाल क्या कहूँ
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
भूख उठी है जन-जन में
डर व्याप्त है मन-मन में
हाय मासूमों का अब क्या होगा
ख़ामोश आँखों का अब क्या होगा
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
रुक गयी जीवन की धारा
बिलख रहा संसार सारा
रूठ गयी जीवन की ख़ुशियाँ
भय से दुःख रही है अखियाँ
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
साँसें रुकी हैं भूख के मारे
क्या करेंगे मज़दूर बेचारे
हाय टूट गया अपनों का प्यार
रो रहे सब घर और द्वार
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
माँ से अपने बिछड़े बच्चे
दूर है कितने घर के बच्चे
बे-मंज़िल कई रास्ते हैं
अभी न जाने कितनी रातें है
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
तांडव कर रहीं हैं मौतें
झन-झन नाच रही है मौतें
विश्व बिलबिला रहा है कैसे
धरा धँस रही दलदल में कैसे
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
कहीं भूख है कहीं प्यास है
कहीं मौतें कहीं आस है
दुनिया जैसे विरान पड़ी है
यह कैसी आफ़त आन पड़ी है
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
निराधार हो गया जीवन हमारा
कैसे बिलख रहा देश हमारा
तरस गये बच्चे दूध और पानी से
कितने बेबस है ये ज़िन्दगानी से
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
कहाँ गए दुआएँ सजदे
जो लोगों का विषाद हर ले
क्या होगा परिणाम इस जलजले का
कब कम होगा जीवन फ़ासले का
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
अपाहिज हो गये सम्बल हो कर
सिकुड़ गये हम बल हो कर
न पत्थर, पानी न उबड़-खाबड़
थम गई रफ़्तार भागम-भागड़
तो बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ
बोलो कैसे तुम्हें पुकारूँ।
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