मृगतृष्णा
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Jan 1970 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
1.
जहाँ-जहाँ लिखा था
तुमने मुझे
प्रेम, समपर्ण, और हक़
काश! वहाँ-वहाँ
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
आईनों के दीदार में
जब-जब
देखा था तुमने मुझे,
काश उस पर कभी
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
तुम्हारे जवाबों का मुझे
कोई मुकम्मल नहीं था
बस अपने हाथों के कालम में
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
तुम्हारे आँसुओं के गवाहों ने
मुझे निःशब्द किया था
काश इनके बहने का कारण भी
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
जो सच था
तुम्हारे–मेरे बीच
काश उसका झूठ भी
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
ऐसा भी क्या था
तुम्हारे हालात में
मेरे गिरेबाँ को न समझ सके
फिर भी इतनी
तकलीफ़ न होती
काश इसका वजह भी,
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
मेरे नाम के आगे
लिखकर अपना नाम
उसे लोगों से छिपाने की ज़रूरत
क्या थी,
काश मेरे नाम के बदले
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
जो कुछ कहा था
तुमने,
रूबरू होकर
काश उन शब्दों का
एक-एक मतलब भी
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
सिर्फ़,
तुम! लिख देते!
सिर्फ़ तुम! . . .
2.
मेरा मौन और मौत
दोनों मेरी उपस्थिति का
सहज बयान है!
एक में वो हैं
जिसमें मैं,
पल-पल जी रहा हूँ!
दूसरे में, मैं हूँ,
जिसमें मैं,
क्षण-क्षण मर रहा हूँ!
3.
सत्य को सत्य रहने दो
असत्य को असत्य!
हम दोनों का
सत्य भी सत्य है
और इसे सत्य न मानकर
हम अपने-अपने
असत्य को लेकर
सत्य के ख़िलाफ़
कोई विद्रोह न करें,
शायद यही हमारी
नैतिक अभिव्यंजना है!
4.
विस्मृत तुम्हारी
कानों की बाली को
हिलते-डुलते जब भी,
स्मृत करता हूँ,
तबीयत में एक सिहरन
दौड़ जाती है,
मैंने जब-जब उसे उतारा
अपने हाथों के प्यालों में!
मुझे क्षमा करना,
यदि तुम्हें कुछ और लगे?
5.
तुम्हारा मौन
मेरी नि:शब्दता
हमारे प्रेम की
अनंत समाधि थी!
पर समय की गति ने
तुम्हें मुखर बनाया दिया
जबकि मुखर
ध्यान नहीं
कोलाहल करता है!
6.
अपरिचित तो हम दोनों थे,
हमें पहचाना था,
हमारे हृदय के स्पंदनों ने!
वो क्या था?
मेरे नेत्रों में तुमने
स्वयं के अस्तित्व की छाया को
सच के दृष्टिकोण में देखा था
हम कैसे कहें कि तुम्हारी पहचान की
वो सम्पूर्णता नहीं थी!
7.
तुम्हारे सिक्त
नेत्रों की,
प्रेमपूर्ण सुधा में
तुम्हारी निश्छल
अभिधा
जिसे मैंने,
स्वयं के अस्तित्व को अर्थ देकर
तुम्हें लक्ष्य रखा!!
और उसे
अपेक्षाओं की व्यंजना में
परिपूर्ण किया,
क्या मैंने ग़ुनाह किया?
8.
अब मुझे एहसास है
कि तुम आये थे
मेरे संकीर्ण
संवेदनाओं के कानन में,
कुछ क्षण के लिए
जिसे मैंने सच का
विस्तार समझा॥
मगर नहीं,
शायद!
तुम्हारे प्रति
वो मेरी अन्यतम,
मृगतृष्णा थी!!
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