मरी हुई साँसें – 003
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Oct 2021 (अंक: 191, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
1.
तेरे ना होने से,
ख़ाली हूँ इतना।
कि तेरी तस्वीर के सामने
आने से भी,
डर लगता है।
2.
बाहर की हलचलें
मेरे हादसों का जश्न है।
कई रोज़ हो गये है,
मुझे!
घर की खिड़कियाँ खोले।
3.
मैं थक गया हूँ,
अपने आप से।
मेरे तन्हाइयों में अब भी
हाँफ रही है,
तुम्हारी साँसें . . .!
4.
अब कोई न सम्हाले
मेरे कंधे को!
मैं अंतिम बार लड़खड़ाना,
चाहता हूँ . . .
तुम्हारे आग़ोश में।
5.
अब मैं बिखरना
चाहता हूँ।
जलते लोहे के ऊपर
पानी की तरह।
6.
जो तुम छोड़कर गये हो
हमारे घर में,
अपनी चीज़ें।
मेरे दिल में,
तुम्हारी मौजूदगी की तरह
खटकती हैं।
7.
मुझे आज भी
घेरे है तुम्हारी अस्थियों का धुआँ।
मेरे अस्तित्व में घने कोहरे की तरह,
जिसे मैं पार करना चाहता हूँ . . .
धीरे-धीरे।
8.
आजकल धमनियों से होकर
गुज़रती है मेरे!
तुम्हारी कही हुई
एक-एक बात।
जो मेरे अकेलेपन में
मुझसे गुफ़्तगू कर जाती है।
9.
आज मेरे घर में
फिर से चुप्पी है।
घर के लोगों ने मुझे फिर समझाया
और अपने-अपने हिस्से की,
तकलीफ़ों में ख़ामोश हो गये।
10.
तुम्हारे दुःखों से
मैं निकल ही नहीं पाता हूँ,
जब-जब तुम्हें!
आँसुओं में ज़िन्दा रखने की
आख़िरी कोशिश करता हूँ।
11.
ऐ ख़ुदा तेरे ज़लज़लों से
मैं हमेशा डरता हूँ।
कि मैं आज भी किसी से
प्यार करता हूँ।
12.
गला मेरा भर जाता है
आँखें मेरी डबडबा जाती हैं
जब छोटी बेटी मेरी!
मुझे माँ कहने की कोशिश करती है।
तुम लौटकर क्यों नहीं आ जाते?
जब कि,
मुझे मालूम है,
अब तुम नहीं आ सकते।
13.
तुम्हारे ख़ालीपन में
धीरे-धीरे विक्षिप्त सा हो गया हूँ..
अब मुझे शर्ट पहनने में भी,
काफ़ी वक़्त लगता है . . .
14.
डूबा रहता हूँ हर रोज़
एक मंज़र में!
अनजाना सफ़र कर रहा हूँ!
एक ठहराव का . . .!
15.
मंज़र!
यह जो लफ़्ज़ है न!
आजकल मेरे लिए . . .
चिर-परिचित
अपना-अपना सा लगता है।
16.
सब कुछ तो मिला मुझे
व्यथा, कथा, दर्द, पीड़ा,
थी बस तुम्हारी कमी
जिसे मैं अब,
अपने सच का मुक़म्मल समझ लिया।
17.
देखा था एक ख़्वाब
मैंने,
तुम्हारे लिए . . .
तुमसे वो असर जोड़ दूँगा!
कि एक दिन,
मेरी उफनती साँसों से तुम!
जाग जाया करोगी।
18.
झाँक कर देखता हूँ,
जब भी तेरे वजूद में।
मेरा नामों-निशां मिटा-मिटा सा
दिखता है।
जिसे मैं फिर से,
अँधेरों में लिखना चाहता हूँ।
19.
सच कहूँ तो,
तुम्हारी आख़िरी साँसों तक..
मुझे उम्मीद थी कि तुम!
मेरे पास लौट आओगी।
क्योंकि उस वक़्त मुझे लगा था,
तुम्हारे बिना,
मैं क्या था?
20.
घर के सभी,
जब कभी
तुम्हारी ख़ुशनुमा बातों को याद कर,
क्षण भर मुस्कुराते हैं,
मैं उस जगह से उठकर
कहीं और चला जाता हूँ
अपने ख़ामोश हृदय को
पलभर एक आवाज़ देने,
कि मैं अभी ज़िंदा हूँ।
21.
कहीं दूर से आती हुई
कोई आवाज़।
मेरे ख़्यालों में
तुम्हारी परछाई नज़र आती रही,
कोई है जो नदी के उस तरफ़
कँपकँपी माउथऑर्गन बजा रहा है।
22.
कमज़ोर हो गई हैं
बाँहें मेरी,
एक सूनेपन में!
कई शाम गुज़र गयीं,
तुम्हें शिद्दत से गले लगाए।
23.
एक साँझ पलती है,
मेरी आँखों तले।
तुम्हारे लिए!
इस वक़्त चली आती हो जो तुम,
मेरी आँखों में झाँकने।
24.
मेरे स्वरयंत्र में
झनझनाती रहता है।
क्षण-क्षण तुम्हारा वो नाम!
जो मैंने तुम्हें,
प्रथम भेंट पर दिया था।
25.
मैं सिद्धांतों से लबरेज़
एक तहज़ीबी शिक्षक था
तुमने मुझे सहज बना दिया
मुझे मालूम था
प्रेम की शुरुआत,
किसी उसूलों पर नहीं होती है।
26.
पिघल कर . . .
मेरे अन्तर्वाहिनी में।
निरन्तर बह रही है . . .
ख़्वाबों की राख तुम्हारी।
27.
ऐ ख़ुदा मेरे!
बस कर मुझे ज़िन्दा रखना।
तू जितना ही मुझे,
ज़िन्दगी देता रहेगा।
वो उतना ही मेरे क़रीब
आती रहेगी।
बस कर मुझे ज़िन्दा रखना
तू जितना ही मुझे,
सफ़र देता रहेगा।
वो धूप बनकर,
मेरे साये के साथ रहेगी।
28.
हाँ!
मुझे याद है वो घड़ी
जब आख़िरी बार देखा था
तुम्हारी आँखों में,
बंद होने से पहले,
मैं उसी तरह सच था।
जैसे तथागत का चार आर्य सत्य।
29.
बस!
अब,
समय के पत्थरों से टकरा कर
तुम्हारे स्मृतियों को लहूलुहान
करता हूँ,
प्रतिदिन।
हाँ बस!
अब,
समय के पत्थरों से टकरा कर
तुम्हारे ख़ालीपन को लहूलुहान
करता हूँ,
दिन-दिन,
प्रतिदिन।
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