मरी हुई साँसें – 001
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
1.
सर्दी की भोर में
होती हुई बारिश की तरह है
मेरी उदासीनता!
जो तुम्हारे क्षोभ से भर गयी है।
किसी शाख़ पर बैठी
भीगी हुई चिड़िया की तरह है,
मेरी उदासीनता!
जो तुम्हारे क्षोभ से भर गयी है।
बहुत दिनों बाद
ख़ुले हुए किसी घर के
दरवाज़े की तरह है,
मेरी उदासीनता!
जो तुम्हारे क्षोभ से भर गयी है।
यह सच को दो टूक में
जानने का असर है।
2.
मैं ज़िंदा रहना चाहता हूँ
ठीक उसी तरह
जैसे किसी सड़क के किनारे
दीवार पर बनी कोई
पेंटिंग!
जिस पर,
हर किसी की नज़र
बारी-बारी से पड़ती रहे!
मैं ज़िंदा रहूँ,
ठीक उसी तरह
जैसे कोई बूढ़ी औरत
के आँचल के कोर में
गठियाए हुए . . .
चंद पैसे!
3.
कभी-कभी मैं
अपनी तल्ख़ अभिलाषाओं से
अपने आप को
वैसे ही छुपाता हूँ
जैसे किसी अजनबी मर्द को
देख कर
अपने गिरे हुए पल्लू को
ठीक करती हुई,
कोई औरत!
4.
करुणा!
काश मैं वैसे ही बेचैन
हुआ होता एक क्षण
तुम्हारे लिए और
अपने उन
अपरिचित लक्ष्यों के लिए
जैसे आज अचानक
बेचैन हो गया था
रेलवे स्टेशन पर
अपने डिस्चार्ज मोबाइल
को चार्ज करने के लिए
इधर-उधर हाँफते हुए!
5.
मैं कुछ नहीं सोचने के लिए
कभी कुछ नहीं सोचा
तुम्हारे लिए, ताकि
तुम मुझे सोचती रहो!
ये मेरे शब्द ही
मेरी तुम हो
और यह सोच
बरक़रार रहेगी
तुम्हारे और मेरे पीढ़ियों तक
क्योंकि मैं इन्हें,
क़लम के सहारे उनके
हवाले कर रहा हूँ . . .
6.
बारिश की सिर्फ़ एक बूँद
सहसा मेरी हथेलियों पर टपकी
मुझे ना जाने क्यों
तुम्हारा नाम याद आया!
बहुत दिनों बाद,
आज मेरे गमलों के फूलों पर
एक नन्ही तितली को
चुपके से आते देखा,
मुझे ना जाने क्यों
तुम्हारा नाम याद आया!
माँ की आलमारी में
मुझे माँ के वो कंगन मिले
जिसे कई वर्षों बाद
आज देख रहा था,
मुझे ना जाने क्यों
तुम्हारा नाम याद आया!
7.
क्या ग़लत था
क्या सही था
तुम्हारे मेरे-बीच!
मुझे नहीं मालूम
बस मुझे इतना यक़ीन था
तुम्हारा और मेरा सम्पर्ण
सच था,
जैसे मैं और तुम सच हैं
अपनी-अपनी जगह
हाँ मुझे यक़ीन था कि
मेरे और तुम्हारे कलब से ही
जन्मा था हमारा तसव्वुफ़
प्रेम!
8.
मेरी हड्डियों को चाट रही है,
धीरे-धीरे
किसी दीमक की तरह
तुम्हारी स्मृतियों की
अतृप्त इच्छाएँ!
क्योंकि मेरे लहू ने
लिख़ा था
मेरी नसों में तुम्हारा नाम!
9.
तुम क्यों नहीं आते हो
मेरे नींद के आग़ोश में।
जैसे आधी रात में,
कहीं दूर से आती हुई
मेरे कानों को स्पर्श करते
किसी रोते हुए
बच्चे की आवाज़!
10.
आज पापा को
ख़ामोश शाल ओढ़े
सर्दी में अलाव जलाते हुए
बहुत ध्यान से देखा
और जाना
ज़िंदगी चाहे जैसी हो
उसे जीते रहना चाहिए!
11.
तुमने कहा था न
कि तुम्हें कैसा प्यार चाहिए?
उस वक़्त मैंने कुछ नहीं कहा था
मगर आज तुमसे दूर जाने के
बाद . . .
ये कह रहा हूँ
मुझे विभावना का अर्थ वाला
तुम्हारा संस्कृत प्रेम
चाहिए था।
12.
मैं बहुत कमज़ोर
व्यक्ति हूँ,
क्योंकि मैं तुम्हारी हर बात को
सिरे से मानने वाला रहा हूँ
जो अपने ही धुन के होते हैं
वो तो कुछ और कर जाते हैं।
13.
जब भी लेता हूँ मैं
स्मृतियों का कश
मुझे तारों के स्वभाव में
तुम्हारा अक्स झलकता है
जो बिखरा रहता है
मेरे सब ख़ूबसूरत ख्यालों में
रात भर...
14.
तुम्हारा और मेरा संबंध
किसी गाँव के
आख़िरी छोर में स्थित
उस कुएँ और उसके किनारे
खिले गुलाब के फूल की तरह है
जिसे मैं समझा ही नहीं
तुम मेरी तासीर से खिले थे,
या
तुम्हारे होने से मैं यूँ
ही ख़ूबसूरत हो गया था।
15.
हे ईश्वर!
जैसे तुम रहस्य हो,
वैसे ही तुम्हारी ये कायनात
और उतना ही आश्चर्य है
तुमसे विनती करना।
हाँ मगर,
मैं एक निवेदन करता हूँ
इस कायनात को,
इसी तरह सलामत रखना
क्योंकि मेरी संवेदनाओं में
पल रही है,
अभी और कोई ज़िंदगी।
16.
जब यहाँ हर रात सोती है
भूधर का मृत्युलोक
जब होता है,
तब जागती
किसी मोड़ पर
खाँसती हुई
किसी बूढ़ी औरत की तरह
सामने से आती है,
मेरी हर रात!
17.
तुम्हारे जाने के बाद
कभी-कभी मैं,
घर की चारदीवारी में
मरती हुई साँसों को छोड़कर,
जीता हूँ मैं..
कुछ पल ज़िन्दगी।
तुम्हारे जाने के बाद
जब-जब मैंने
सच कहा।
तब-तब लगा मुझे,
मैंने आत्महत्या की है।
18.
जब कभी
किसी धारा को
पत्थरों को तराश कर
बहते हुए देखा
मुझे उसमें तुम्हारा,
समर्पण दिखा।
जब कभी बाँसुरी को
एक स्वर में,
बजते हुए सुना
मुझे लगा तुम मेरे साँसों से
एक छंद में निकल रही हो।
जब कभी अन्नदाताओं के
खेतों में हल को
मिट्टी को चीरते हुए देखा
मुझे तुम्हारा . . .
समयबद्ध प्रेम नज़र आया।
19.
मेरी तल्ख़ तन्हाइयों में
मुझे तीक्ष्ण
तुम्हारी याद आई
फ़िराक़ फ़िल्म में
जगजीत सिंह को
राग बागेश्री में
बंदिश को क्षण भर
गुनगुनाते हुए जब सुना . . .।
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