हादसे अभी ज़िन्दा हैं
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 Oct 2019
यह कैसे कह दूँ,
कि मेरे पास कुछ नहीं है।
कितने ग़मों की सौग़ातों से,
भरी पड़ी है मेरी ज़िन्दगी।
दुःख इसका नहीं मुझे
कि बुरा हूँ मैं,
बहुत जल्दी साज़िशों का शिकार
हो जाया करता हूँ मैं।
क्या आर्कषण ही,
प्रेम का मापदंड हुआ करती है?
हादसों से मेरा चेहरा क्या बिगड़ा,
कुछ को हाथ-पैर की मैल की तरह,
मेरे समर्पण को धोते देखा है।
नादानों के लिए मेरी यह भावनाएँ,
शब्दों के तारतम्य के सिवाय कुछ भी नहीं।
लेकिन कुछ के लिए,
मन्दिर के दीये की तरह हैं,
जिस पर हाथ रखकर,
कुछ बदलने की ख़्वाहिश रखते हैं।
दुनिया किसी की आज भी उजड़ती है,
कुछ के खण्डहर मिल जाते हैं,
कुछ का कहीं नामोनिशा नहीं होता है।
कैसे मान लूँ ,
लोग समझते और पहचानते हैं मुझे,
क्यों हर बार मुझसे पूछा जाता है,
क्या हाल है आपका?
कोई जरूर नहीं,
यहाँ सब कुछ मिल जाए मुझे,
जाते वक़्त कुछ तो बोझ,
मेरा हल्का होना चाहिए।
जिस सुकून की तलाश में निकला था,
अपने जीवन को साथ लेकर,
पता चला वो तो ख़ुदा के पास है।
आज टूटकर मैंने,
माँ के आँचल में छिपना चाहा,
लेकिन कमबख्त शरीर का क़द,
बड़ा निकला।
यह ज़ख़्म है,
या समन्दर का पानी,
ख़त्म ही नहीं होता।
किसको कहें हम,
यहाँ अमूल्य।
भगवान की मूर्तियाँ भी यहाँ
दामों में बिकती हैं।
यहाँ हादसों से अगर
खड़ी होती है भीड़,
तो एक हादसा मेरा भी होना चाहिए।
कोई क्या समझेगा,
मेरे एहसासों की क़ीमत,
कुछ चीज़ों के दाम नहीं हुआ करते।
मेरे जीवन का कोई
ठिकाना तो नहीं,
मगर मेरा नाम
लोगों की ज़ुबान पर जगह ले लेंगे।
तू मुझसे अब कुछ भी न कह. . ऐ ज़िन्दगी,
तू भूखे पेट सोते हुए,
एक बच्चे में भी ज़िन्दा है।
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