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बटकुट की वादियाँ

काँच की खिड़की पर लटके भारी पर्दे भी पत्तों की सरसराहट की आवाज़ को मुझ तक आने से रोक नहीं पाते जो कि हल्की संयत हवा के बहने से भी मचल उठते हैं। यह आवाज़ उन पत्तों की होती है जो अखरोट के पेड़ की एक ढीठ डाल से लिपटे, मेरे कमरे के बाईं ओर भीतर झाँकने को सदैव मचलते रहते हैं। सो, कभी-कभार उनकी बलवती इच्छा को पूरा करने हेतु मुस्कुराते हुए मैं पर्दा हटा, ज्यूँ ही खिड़की के पट खोलती हूँ तो वे बिना इजाज़त के झट से भीतर आ, मानो चैन पा जाते हैं। जैसे जता रहे हों कि हम ही तो हैं तुम्हारे रात-दिन के साथी। सच में उनकी उपस्थिति मेरे एकांत को जीवंत बना जाती है। उस पल हर्ष की हिलोर मुझे यूँ उद्वेलित करती है कि मैं कमरे से बाहर जाकर उस अखरोट के पेड़ के तने को, जो अपनी मोटी-मोटी जड़ों का पंजा जमाए खड़े-खड़े मुझे एक नए आशिक़ की तरह हर पल निहारता रहता है– अपने आलिंगन पाश में बाँध लेती हूँ। अपनी छुअन से उसे अपने प्रेम का निःशब्द एहसास कराती हूँ। शायद मेरा पलोसना उसे मेरे संवेगों से परिचित कराता है, और उसकी प्राणवायु में प्रेम संचारित करता है तभी तो इसी इकलौते पेड़ के फल बाक़ी के पेड़ों से बड़े हैं। इसके नन्हे-नन्हे फलों को बढ़ते देखना मेरी आदत में शुमार हो गया है। यह दीर्घकाय पेड़ “पाइन रिसोर्ट” की तिमंज़िला इमारत के बाईँ तरफ़ है। और उसी कोने में मैंने कमरा लिया है तीन हफ़्तों के लिए।

रिसोर्ट के दाएँ-बाएँ दोनों तरफ़ की बाउंड्री-वाल के साथ मक्की के खेत हैं। जिनके बीच -बीच में सब्ज़ियाँ जैसे टमाटर, बैंगन, लौकी, हाक और कड़म का साग वग़ैरह की खेती भी होती हैं। मेन गेट से सामने की ओर टेढ़ी चढ़ाई चढ़ कर मेन रोड पर पहुँचते ही रोड के दोनों तरफ़ बीस-पच्चीस फ़ुट के फ़ासले पर अखरोट के पेड़ों की क़तारें दूर तक दिखती हैं। उन्हीं पेड़ों के पीछे की ओर (willows) यीढ़ की क़तारें हैं। विख्यात क्रिकेट के बल्ले इसी यीढ़ की लकड़ी से ही कश्मीर में भी बनाए जाते हैं। यीढ़ की पत्तियाँ सफ़ेदी लिए, नुकीली और पतली चार-पाँच इंच तक की होती हैं। सूर्य की किरणों के छूने भर से वो हल्की बयार में भी चमक-चमक कर नाज़ुक हिलोरे लेती हैं और बरबस ध्यान खींचतीं हैं व चाँदी की पत्तियाँ लगती हैं। ऐसे दृश्य मुझे बाँध लेते हैं।

वहाँ कानों में भी हर पल कल-कल ध्वनि का संगीत रस घुलता रहता है, जो लॉन की पिछली दीवार के संग बहती बर्फ़ीली पहाड़ी नदी “लिद्दर” से गूँजता है। यह लिद्दर अपने उद्गम– बाबा बर्फ़ानी के चरणों में समाहित शेषनाग झील से निकलकर मीलों पहाड़ों-पत्थरों से टकराती, राह में प्यासों की प्यास बुझाती नीचे मैदानों में आकर झेलम नदी में समा चैन पाती है। मैंने ऊपर नज़र उठाई जहाँ आसमान और बर्फ़ से ढँकी चोटियाँ एकाकार हो रही थीं। ग्रीष्म के आरम्भ होने पर भी यहाँ ठंडक बनी हुई है। उतरती साँझ में आसमाँ चूनर बदल रहा था और उस पर विश्राम करते मेघों के टुकड़े मानो चूनर पर छपे डिज़ाईन हों। वैसे वे बीच-बीच में चारों ओर फैली पर्वत शृंखलाओं पर हँसी-ठिठोली कर आगे-पीछे भागते भी दिखते हैं। प्रकृति के क्षण-प्रतिक्षण बदलते रंगों के इन तानो-बानो में मन उलझने सा लग जाता है। सोचने लग जाती हूँ कि किनारे पर सर उठाए गहरे हरे पर्वत तो निरंतर बहते दरिया से भी विचलित नहीं होते यूँ ही स्थिर बने रहते हैं– दोनों पाटों के मध्य आकंठ डूबे से! वहीं रश्मिरथी भी चमक बिखेरता पश्चिम की चोटियों के मध्य ललाट पर सिंदूरी बिंदी सा चमकता दिख रहा है। यहाँ सुबह से साँझ तक हर दिन प्रकृति नए रंग बिखेर नयनाभिराम दृश्य परोसती रहती है, जिनसे शीतलता झरती रहती है।

इस समतल पर घाटी में नदी की छोटी-छोटी धाराएँ हैं, जिन्हें यहाँ के वासी नदी किनारे बिखरे पत्थरों के छोटे-छोटे बाँध बना कर अपनी ज़मीनों और खेतों की ओर मोड़ लेते हैं। वे इन्हीं से पनचक्की भी चलाते हैं। ये धाराएँ पुनः नीचे जाकर दरिया में अपना अस्तित्व खो देती हैं।

एक सुबह सूर्य की रश्मियाँ बिखरते ही मैं रिसोर्ट से सटे द्वीप के किनारे बिखरे पत्थरों पर बैठकर अपने पाँव बर्फ़ीले जल में डालकर बैठने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। बर्फ़ीले जल में पाँव डालते ही मैं भीतर तक भीग गई। ठंडक से पाँव झन-झन कर रहे थे (केवल दो मिनटों तक ही उस बर्फ़ीले-जल में रह सकते हैं) और मेरा मन भाव-विभोर सा संगीतमय होकर काव्य रचने लग गया था। मेरे सामने ऊँचे पर्वत से फेनल झरना आकर लिद्दर को और भर रहा था, सो मैं मंत्रमुग्ध सी इस सब के मध्य गुम थी। सतत प्रवाह झरने, वेग से बहती पहाड़ी नदी ”लिद्दर”, सम्मुख सन्नाटों के पहरेदार बने चीढ़ और देवदार और नभ पर मँडराते हुए आवारा मेघों के कारवाँ। सभी अपनी लय, तान और प्रवाह में बहते हुए। ऐसे विभोर कर देने वाली दिव्यता के मध्य ही लगता है हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों की रचना ऋषि-मुनियों ने की होगी। सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम के सत्य-रूप को पाया होगा। समय का यह सतत प्रवाह ही तो अन्तिम सत्य है। अंतिम सम्पूर्णता का प्रतीक! मेरे अन्तर से आदि-शक्ति की स्तुति ओंठों पर थिरक उठी।

उस द्वीप पर लिद्दर के जल के शोर से होड़ लेता झींगुरों का शोर भी है, जो वहाँ खड़े शहतूत के पेड़ों पर छिप अपना मीठा गान सुनाते हैं। हम मैदानों से आए लोगों के लिए ये वादियाँ, ये फ़िज़ाएँ और हिमाच्छादित पर्वत मालाएँ किसी जन्नत से कम नहीं होते। अगले ही दिन एक नव-ब्याहता जोड़ी जो पंजाब के एक गाँव से हनीमून मनाने कश्मीर आई थी, हमें मिली और हमसे पूछने लगी कि पहाड़ों पर वो सफ़ेद-सफ़ेद रेत बिछी है कि चीनी? हमें उनकी कल्पना की उड़ान पर आश्चर्य हुआ, किन्तु शीघ्र ही समझ आ गया कि यह मैदानी कौतुहलता है।

पहाड़ों पर ग्रीष्म में भी सर्दी की खिली-खिली धूप में लॉन में नाश्ता करने के पश्चात मेरे क़दम आज फिर वहीं पिछली ओर नदी के द्वीप की पर खिंचे जा रहे थे। मैंने हाथ में डायरी और पेन ले लिया था। क्षितिज के पार जाती दृष्टि कल्पनाओं की उड़ान में कुछ रचने की चेष्टा कर रही थी कि ध्यान निरवरत बहते जल और सदियों से निरंतर होती उसकी जल-क्रीड़ाओं व जल के वेग की ठोकर को सहते छोटे-छोटे पत्थरों पर जा टिका। मेरी संवेदनशीलता उन से पूछ उठी कि क्या वे ज़ख़्मी नहीं होते, पल-पल, हर पल जल के थपेड़ों से, हर पल की चोटों से? वहीं दूसरा पक्ष नदी का था। वह उँचे-नीचे पत्थरों से टकराती, सर्प सी चाल चलती अपना रोना रो रही थी कि मुझे इन पत्थरों ने बहुत चुभन दी है। दोनों पक्ष अपना-अपना रोना सुना रहे थे– कहीं किसी की कोई सुनवाई नहीं थी। सदियों से इनके गवाह– किनारे- अविचलित मुँह बाये बस ताकते रहते हैं। इनका यही प्रारब्ध है, यह सोचकर मैं हम इंसानों के विषय में विचारने लगी कि हम इंसान क्यों विद्रोह कर उठते हैं? हम प्रकृति के सान्निध्य में रहकर भी कुछ ग्रहण क्यों नहीं करना चाहते? ख़ैर, यह बातें फिर कभी…..

लॉन में फूलों पर मँडराती तितलियों और चारों ओर फैली हरियाली के मध्य एक दोपहर काटते हुए, फिर वहीं साँझ ढले गरमा-गरम चाय पी रहे थे कि देखा सामने मेन रोड पर ढेरों भेड़- बकरियों का कारवाँ गुज़र रहा है। रोक नहीं पाई अपने को, पहुँच गई उनके बीच और एक नन्हे मेमने को गोद में उठा लिया। कितना कोमल और मुलायम बालों वाला। मेरा दिल उनके बीच झूम उठा। कारवाँ बिन रुके ऊपर की ओर बढ़ता जा रहा था। मैं अपने कश्मीरी सेवक राजा के साथ वापिस आ गई और वो मुझे इन बकरीवालों के विषय में बताने लगा कि ग्रीष्म के प्रारम्भ में ढेरों गूजर और बकरवाल मैदानों से पहाड़ों की ओर रुख करते हैं। ऐसे कई झुंड इस महीने हर दिन निकला करेंगे। अब मुझे इनका इंतज़ार रहता। कभी-कभी उनके बीच जाकर उनको हाथ लगा, पलोस आती तो मन प्रफुल्लित हो उठता।

एक दोपहर को भेड़-बकरियों का इतना विशालकाय कारवाँ गुज़रता देखा कि वो दाएँ छोर से बाएँ छोर तक दिखाई दे रहा था, मैं अपने को रोक नहीं पाई और जा पहुँची उनके बीच। उनसे बातें करने को जी कर आया। पीछे-पीछे भारी-भरकम कुत्ते, गृहस्थी के सामान और बच्चे व एक गूजर औरत लादे हुए दस-पंद्रह घोड़े भी उनके साथ थे। एक अधेड़ उम्र का गूजर जिसकी आधी दाढ़ी मेंहदी से रँगी थी, वह भी औरों की भाँति हाथ में डंडा लिए मवेशी हाँक रहा था– मुँह से एक अजीब सीटी की आवाज़ निकालकर, उनका सरदार जान पड़ा। मैंने उसका नाम पूछा, तो बोला, ”मेरा ना ’गुच्छी’, ए ते ऍ मेरी जनानी ’बानो’ ए।” (उसकी बीवी उसके पीछे आकर खड़ी हो गई थी)। बाक़ी लोगों के हाथों में भी पेड़ की कटी डगालों के डंडे व सभी के भारी भरकम जूते और उन पर गंदे, मैले से बदरंग सलवार- कुर्ते थे। हाँ बानो ने ऊपर से कश्मीरी फिरन (कुर्ता) कढ़ाई वाला पहना हुआ था। बानो ने बताया कि अभी इनका डेरा जम्मू के पास ‘रियासी‘ से आ रहा है। ठंड शुरू होते ही ये मैदानों की ओर वापिस चल पड़ते हैं। बानो के पास से भेड़ों की तीव्र गंध आ रही थी, जो स्वभाविक थी।

गुच्छी सामने वाला पहाड़ दिखाते हुए बोला, ”सामणे ओ उ दूर पहाड़ी ते जित्थे बर्फ़ पिंगल गई ए नवीं काह डंगरा लई मिलसी–ओत्थे डेरा जमाणा ए, रात रस्ते रहाँगे” (सामने दूर पहाड़ पर जहाँ बर्फ़ पिघलने के बाद नई घास इन पशुओं को चरने को मिलेगी, वहाँ डेरा जमाना है। रात रास्ते में कटेगी)। बातों से पता चला कि ये खानाबदोश हैं। सास ने बहू की जँचकी कुछ दिनों पूर्व राह में ही की थी इसलिए वो घोड़े पर नवजात शिशु को लिए बैठी थी। नहीं तो मक्की की रोटी और भेड़-बकरियों के दूध की ताक़त से ये गूजर स्त्रियाँ भी अपने क़दमों से लम्बे सफ़र तय करती हैं। शायद सदियों से सी-सी, शी-शी की अजीब आवाज़ मुँह से निकालते ये लोग राहों को नापते बढ़े जा रहे थे अपने जानवर हाँकते। यदि कोई दूसरा झुंड भी पास आ जाए तो हर झुंड के जानवरों को अपने झुंड की सीटी की पहचान होती है वो गुमराह नहीं होते। किसी-किसी के पास दो-ढाई सौ, तो किसी के पास पच्चीस-तीस जानवर होते हैं। मीलों-मील इनके कारवाँ चलते रहते हैं। ऊँचे पहाड़ों पर जंगली जानवर जैसे रीछ, भालू भी होते हैं, जिन्हें इनके शिकारी कुत्ते भगा देते हैं। इन्हें यायावर ही कहेंगे अज्ञेय की भाषा में, जिनका सफ़र ताउम्र चलता ही रहता है नई राहें, नई मंज़िलें तलाशने में। उम्दा शॉल बनाने के लिए यह कौम जुटी है, अपने जानवरों को उम्दा घास खिलाने में। ना जाने कितनी सदियों से चले आ रहे इस जज़्बे के समक्ष नत मस्तक हो उठी थी मैं। प्रभु ईसा मसीह और भेड़ों से जुड़ी ढेरों कथाएँ मेरे भीतर घूम रही थीं।

इक्कीसवीं सदी वैश्वीकरण का युग है। नए ग्रहों-उपग्रहों तक पहुँचने और वहाँ कुछ नया पा लेने की होड़ में पूरा विश्व जुटा हुआ है और कहाँ ये गूजर-बकरवाल आज भी अपनी उसी पिछड़ेपन की दुनिया में संतुष्ट हैं। आख़िर ज्ञान, सुरक्षा, उदरपूर्ति और आवागमन –जीवन के इन चारों कर्मों पर विराट का वर्गीकरण ’कर्म-सिद्धांत’ पर किया गया है, यही इनका जीवन है। सभ्य समाज में नारी के अधिकारों की माँग को लेकर शोर है, नारी सुरक्षा के लिए चिंतित है। जबकि इनकी स्त्रियाँ कर्म-शील और सुरक्षित हैं। ये भेड़-बकरियों के बचे दूध से घी और पनीर की ख़ास रोटी ’कलाड़ी’ बनाकर बेचने के लिए लाते हैं और शाही दावतों में पुलाव में डलने वाली क़ीमती चीज़ ‘गुच्छियाँ’ भी लाते हैं, जो ५०,००० रुपये किलो के भाव बिकती है आज। हर बार बकरवालों से नई-नई बातों की जानकारी मिलने से मेरी रुचि उनमें बढ़ रही थी। कुछेक भैंसों को भी साथ लिए चलते थे। एक बार बहुत ऊँची भेड़ दिखने पर मैंने उसकी बावत पूछा, तो बकरवाल ‘तारिक’ ने बताया कि यह अच्छी नस्ल की भेड़ है, इसकी गर्दन पर चार-पाँच माँसल हार बनते हैं– इसे बढ़िया नस्ल बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसका क़द भी ऊँचा होता है और क़ीमत भी पैंतीस-चालीस हज़ार होती है। तारिक बोला, ’पैसा बोत है मेरे कोल, बैंक विच रखया। ईद-बक़रीद ते जनावर विकदे ने, ते नवे कपड़े ब्णींसे। बिब्बी! मिंगाई बोत ए, जनावर काह खासीपर असां ते अनाज खाँड़ा ए ना'(पैसा बहुत है मेरे पास, ईद-बकरीद पर जानवरों की ख़ूब बिक्री होती है तो हम लोग नए कपड़े बनवाते हैं। लेकिन बीबीजी, महँगाई बहुत है,जानवर घास खाते हैं पर हमने तो अनाज खाना है ना’)।

तारिक की मँहगाई की शिकायत मन को चुभन दे गई। जो लोग सारी दुनिया से बेख़बर जीए जा रहे हैं, वे भी इस बढ़ती मँहगाई के हत्थे चढ़ रहे हैं -दो वक़्त की रोटी के लिए। उन्हें मंज़िल की ओर बढ़ना था, सो वो आगे बढ़ गए और मैं ढलान उतर रही थी कि देखा नीचे से चालीस-पचास घोड़ों का कारवाँ– तीन-तीन की क़तार में ऊपर जाने के लिए आ रहा है।

सड़क की बाक़ी जगह से गाड़ियाँ हाँर्न बजा-बजा कर निकल रह थीं। बाबा अमरनाथ (शिव-शम्भु) की यात्रा जून माह के आख़िर से आरम्भ होनी थी- रक्षा-बंधन पूर्णिमा से चालीस दिन पूर्व। शायद उसी हेतु घाटी की ओर उनका रुख़ था रजिस्ट्रेशन करवाने के चक्कर में, एवम बर्फ़ीले पहाड़ों पर तीर्थयात्री ढोने के लिए घोड़ों के पंजों पर नई नाल ठुकवाने के लिए। बटकुट घाटी में मेरा भी आख़री समय था, परसों मेरी वापसी की फ़्लाइट थी। मेरे भीतर कुछ बूँद-बूँद पिघल रहा था। जहाँ मैं रोमांचित थी, पुलकित थी, पंछी बन उतुंग पर्वत-शिखरों को छूने को आतुर —वहीं पर यहाँ से पुरातनता को नवीन युग के समानांतर लाते हुए मेरी अनुभूतियाँ विफ़र रही थीं और विचारों में उथल-पुथल भी थी। बाह्य समाज में ऐशो-आराम के असंख्य उपकरण हैं, जिनको हासिल करने की चाह जैसी मानसिकता के चलते घूस, अत्याचार, छल-फ़रेब, गंदी राजनीति और अनैतिकता बढ़ रही है जबकि इस सब के विपरीत ये नोमैड्स या बकरवाल अपने में ही जीए जा रहे हैं। सम्पूर्ण सुखी, आत्मिक शांति से लबरेज़ और पूर्ण-संतुष्ट!

जहाँ अन्तस झूम उठता है, यहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य में प्रकृति के पोर-पोर में व्याप्त सौन्दर्य की पराकाष्ठा को अपनी दृष्टि से निहार, मानो छूकर उस स्पर्श को सजीवता से आत्मसात करने में, वहीं यहाँ की आत्मा में स्थित यहाँ के लोग चुम्बकीय आकर्षण हैं।
 

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