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बोर हो रहे हो तुम!

यूँ कहने को कुछ नया नहीं था
जो आँख की परिधि में था
वह तुम भी जानते हो
मैं भी
पर फिर भी वक़्त बिताने को बोलते रहे तुम
बोलती रही मैं!
जब कि कहने को कुछ नया नहीं था!

आँख के विस्तार से बाहर की चीज़ों को
न तुमने छुआ
न मैंने
मन की झीलें
खड़े-खड़े सूखती रहीं
न मुझे फुरसत थी उसे देखने की
न तुम्हें,
उन में न कोई चाँद झाँका
न कोई सूरज !!

बाहर की बातों को
दोहराते-दोहराते
हमने लिखे, कविता, गीत, छंद
दुनिया बदल देने की बातें की बड़ी-बड़ी
कल्पनाओं की दुनिया बनाई
हँसे, रोये, प्रेम की क़समें खाईं.....
कहे हुये को
चमत्कार की तरह दोहराया
और अपने को सब से बड़ा कलाकार पाया!!

हमने सूत की तरह लपेटा
इन बातों को अपने चारों ओर
तह पर तह
तह पर तह!!

अब अगर बोर हो रहे हो तुम
या बोर हो रही हूँ मैं
अब अगर गंधा रही है झील
अब अगर जकड़न कस रही है बातों की
तो बताओ
क्या करोगे तुम?
क्या करूँगी मैं???

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