एक तरफ़ा सच
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम1 Apr 2020
तुम्हारी ख़ुशी के लिए ही तो जीता हूँ,
इसलिए हर बात डर-डर के कहता हूँ!
तुम कह क्यों नहीं देते दिल की सच्चाई,
मैं सुनने के लिए पल पल सहमा जाता हूँ।
तुम निकल जाते हो कितनी दूर,
अपनी बेपरवाह हँसी को लेकर,
ना जाने क्यों मैं क़दम-क़दम पर,
कुछ ठहरा-ठहरा जाता हूँ।
कितनी रंजिशों के बाद मैंने पाया है,
एक सुकून इस दुनिया के शोर में,
तुम इसे दिल्लगी कह कर बैठ जाते हो कहीं,
मैं कहाँ-कहाँ टुकड़ों-टुकड़ों में लूटा जाता हूँ।
देकर एक उलझन, कसक तुम,
कितने सुकून से सो जाते हो!
मैं कितनी रातों से जागा-जागा जाता हूँ।
जो सच है उसे मानते क्यों नहीं
आख़िर तुम क्या चाहते हो,
क्या तुम को रिश्तों का कोई मोल नहीं
मैं दिन-रात इस पहेली को सुलझाए जाता हूँ।
मैं तुम्हारी मस्ती की हँसी नहीं,
मैं तुम्हारे घड़ी का वक़्त नहीं,
जब चाहे जैसे चलाए जाते हो
मैं वक़्त का कुछ ठहराव हूँ...
जो लम्हा-लम्हा बीता जाता हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनसुलझे
- अनुभव
- अन्तहीन
- अपनी-अपनी जगह
- अब लौट जाना
- आँखों में शाम
- आईना साफ़ है
- आज की बात
- उदास आईना
- एक छोटा सा कारवां
- एक तरफ़ा सच
- एक तस्वीर
- एक पुत्र का विलाप
- कल की शाम
- काँच के शब्द
- काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता
- कुछ छूट रहा है
- गेहूँ और मैं
- चौबीस घंटे में
- छोटा सा सच
- जलजले
- जीवन इधर भी है
- जीवन बड़ा रचनाकार है
- टूटी हुई डोर
- ठहराव
- तुम्हारा एहसान
- दर्द की टकराहट
- दीवार
- दीवारों में क़ैद दर्द
- धरती के लिए
- धारा न० 302
- पत्नी की मृत्यु के बाद
- पीड़ा रे पीड़ा
- फोबिया
- बेचैन आवाज़
- भूख और जज़्बा
- मनुष्यत्व
- मशाल
- मुक्त
- मुक्ति
- मेरा गुनाह
- मैं अख़बार हूँ!
- मैं डरता हूँ
- मैं दोषी कब था
- मैं दोषी हूँ?
- रास्ते
- रिश्ता
- वह चाँद आने वाला है
- विवशता
- शब्द और राजनीति
- शब्दों का आईना
- संवेदना
- सच चबाकर कहता हूँ
- सच बनाम वह आदमी
- सच भी कभी झूठ था
- सफ़र (राहुलदेव गौतम)
- हादसे अभी ज़िन्दा हैं
- ख़ामोश हसरतें
- ख़्यालों का समन्दर
- ज़ंजीर से बाहर
- ज़िन्दा रहूँगा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}