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एक तरफ़ा सच

तुम्हारी ख़ुशी के लिए ही तो जीता हूँ,
इसलिए हर बात डर-डर के कहता हूँ!


तुम कह क्यों नहीं देते दिल की सच्चाई,
मैं सुनने के लिए पल पल सहमा जाता हूँ।


तुम निकल जाते हो कितनी दूर,
अपनी बेपरवाह हँसी को लेकर,
ना जाने क्यों मैं क़दम-क़दम पर,
कुछ ठहरा-ठहरा जाता हूँ।


कितनी रंजिशों के बाद मैंने पाया है,
एक सुकून इस दुनिया के शोर में,
तुम इसे दिल्लगी कह कर बैठ जाते हो कहीं,
मैं कहाँ-कहाँ टुकड़ों-टुकड़ों में लूटा जाता हूँ।


देकर एक उलझन, कसक तुम,
कितने सुकून से सो जाते हो!
मैं कितनी रातों से जागा-जागा जाता हूँ।


जो सच है उसे मानते क्यों नहीं
आख़िर तुम क्या चाहते हो,
क्या तुम को रिश्तों का कोई मोल नहीं
मैं दिन-रात इस पहेली को सुलझाए जाता हूँ।


मैं तुम्हारी मस्ती की हँसी नहीं,
मैं तुम्हारे घड़ी का वक़्त नहीं,
जब चाहे जैसे चलाए जाते हो
मैं वक़्त का कुछ ठहराव हूँ...
जो लम्हा-लम्हा बीता जाता हूँ।


 

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