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समीक्ष्य पुस्तकः फुसफुसाते वृक्ष कान में “काव्य संग्रह”
रचयिताः हरिहर झा
प्रकाशकः अयन प्रकाशन
महरौली, नई दिल्ली
मूल्यः 350रुपए

रचनाकार जो कुछ भी लिखता है वह देश समाज के लिए ही लिखता है। उसके बारे में ही लिखता है। उसकी मूल्य-मान्यताओं को और परिष्कृत करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि समाज के हर उस पक्ष पर विशेष रूप से जाती है जिसे वह एक सभ्य सुसंस्कृत समाज, देश के लिए अनुचित समझता है। रचनाकार एक पथ प्रदर्शक होता है। वह युग दृष्टा, युग सृष्टा दोनों ही हो सकता है। हालाँकि यह निर्भर इस बात पर करता है कि उसकी रचना में गहराई कितनी है। जितनी गहराई उसकी रचनाओं में होगी वह उतना ही बड़ा रचनाकार होगा। इस क्रम में सदाशिव श्रोत्रिय की इस बात का उल्लेख करना उचित होगा ‘‘हमारे आज के समय का वही कवि कोई बड़ा कवि होने का दावा कर सकता है जो हमारे इस आज के समय को वाणी दे सके। जो आज की ठगी और मुनाफ़ाखोरी को, आज की सांस्कृतिक अवनति को, आज की बेईमानियों और भ्रष्टाचार को, सामान्यजन की पीड़ाओं और कष्टों को अपनी कृतियों में अभिव्यक्ति दे सके और साथ ही मानवता के शाश्वत रूप से वरेण्य मूल्यों को जीवित और जागृत रखने में सहयोग कर सके वही अंततः एक बड़ा कवि साबित हो सकता है। ऐसा कर पाना उसी कवि के लिए संभव है जो अपने समय को पूरी सचाई, पूरी संवेदनशीलता और मानवता के प्रति पूरी प्रतिबद्धता के साथ जिए। जिन कवियों का उद्देश्य केवल तात्कालिक प्रतिष्ठा से संभावित लाभ प्राप्त करना है और जो इसके लिए कैसे भी हथकंडे इस्तेमाल कर सकते हैं वे कभी हमारे समय के सच्चे कवि नहीं हो सकते।’’

सदाशिव श्रोत्रिय ने विगत दिनों कवि स्वर्गीय वीरेन डंगवाल पर लिखे एक लेख में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था। सही मायने में हमें कवि और कथाकार को भी आज के परिवेश में इसी मापदंड पर देखना चाहिए। यहाँ सदाशिव श्रोत्रिय के इसी मापदंड पर कवि हरिहर झा के नए काव्य संग्रह “फुसफुसाते वृक्ष कान में” की चर्चा कर रहा हूँ। सत्ताइस वर्षों से अॅास्ट्रेलिया में रह रहे हरिहर झा का “भीग गया मन” के बाद यह दूसरा काव्य संग्रह है। वह अॅास्ट्रेलिया में रह तो ज़रूर रहे हैं लेकिन उनका मन अपनी मातृभूमि भारत में ही साँसें लेता है, यहीं बसता है। यह संग्रह भी भारत के ही एक प्रकाशक “अयन प्रकाशन” से आया है। उनकी अत्यधिक संवेदनशील दृष्टि देश, समाज के हर कोने में पहुँचने को प्रयासरत रहती है। समाज में अपनी संस्कृति, मूल्य मान्यताओं के प्रति उपेक्षा, पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण से वह आहत होते हैं। उनके आहत मन की छटपटाहट उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होती है। “भूले सब संस्कार, समझ, फूहड़ता की झोली/ गम उल्लास निकलते थे, बनी गंवारू बोली /गिटपिट अब चाहें, अंग्रेजी में गाल बजाना/ चोंच कहां, चम्मच से तोते सीख गए खाना।” आज के हमारे समाज का सच यही है कि परिवर्तन की बयार कुछ ऐसी बह रही है कि उसे उल्टी बहती बयार कहना ही सर्वथा उपयुक्त होगा। क्योंकि इस बयार में हम अपनी संस्कृति मूल्य मान्यताओं को विस्मृत किए जा रहे हैं। इसे हेय दृष्टि से देख रहे हैं, फ़ैशन, प्रगतिशील बनने, दिखने का भूत ऐसा सवार है कि अंधानुकरण में यह तक नहीं देख रहे हैं कि जो कुछ कर रहे हैं वह उपयुक्त है भी कि नहीं। अंधानुकरण में अपनी जड़ से दूर होते जा रहे हैं। यह स्थिति कवि को परेशान करती है, इसके बावजूद कि वह लंबे अरसे से दूर दूसरे देश में रहते हैं।

भारत की राजनीतिक स्थिति को वह बड़ी गंभीरता से लेते हैं। कश्मीर समस्या उन्हें दुखित करती है। वह याद करते हैं कश्यप ऋषि को। वह याद करते हैं उस कश्मीर को जो कश्यप ऋषि की तपस्या की दिव्य आभा से आलोकित हुआ करता था। जो हज़ारों हज़ार वर्षों तक दिव्य भारतीय संस्कृति की वाहक रही। श्रेष्ठ संस्कृतियों की प्रतीक कश्मीरियत जो कभी दुनिया को अचंभित करती रही आज वह कश्मीरियत जेहादियों के कारण दरबदर है। उन जेहादियों के कारण जिन के विचारों में उनके मजहब के अलावा किसी अन्य धर्मानुयायी को यह अधिकार ही नहीं कि वह पृथ्वी पर रहे। कश्मीर की वर्तमान स्थिति पर उनकी पीड़ा “भूत जो अब घट गया है।” कविता में उभर कर आती है। बहुत क्षुब्ध हो कर कहते हैं, “पल छिन के धागों में रही, सहस्त्र वर्षों की लड़ी/ डल झील पर कश्यप ऋषि के भ्रमण में बाधा पड़ी/ तपस्या में विघ्न कर जाते रहे हैं बम -धमाके/ बिखरते, मोहक छटा में खौलते लहू के सिक्के/ स्वर्ग धरती का है किंतु हाय! हिंसा में घिरा कश्मीर।” कश्मीर को लेकर यह पीड़ा वास्तव में हर उस हिंदुस्तानी की पीड़ा है जो वसुधैव कुटुंबकम के पवित्र विचारों की बयार में साँस लेता है। हर उस व्यक्ति की पीड़ा है जो जियो और जीने दो के विचार को महत्व देता है। निस्संदेह इस पीड़ा के ज़िम्मेदार मजहबी सोच और सत्तालोलुप सियासती सोच के मक्कार खिलाड़ी ही हैं।

कश्मीर ही नहीं सियासत का शिकार भाषा भी हुई है। हिंदी भाषा के प्रति कवि का अतिशय अनुराग है। वह हिंदी को उसका उचित सम्मान मिलते देखना चाहते हैं। क्योंकि वैज्ञानिकता की दृष्टि से भी वह इसे श्रेष्ठ पाते हैं। हर जिह्वा पर वह हिंदी को विराजते देखना चाहते हैं। भावना कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं “गूंजे हिंदी घर घर में ज्योत जले विद्या की/ जय हो हिंदी भाषा की।” आगे लिखते हैं “देवनागरी वैज्ञानिक लिपि साथ है, बोलते ज्यों लिखने को चला हाथ है /संप्रेषण की क्षमता अद्भुत रखती हिंदी/ जय हो हिंदी भाषा की।” मगर सियासत के धुरंधरों ने भाषा को भी नहीं बख्शा। इकहत्तर वर्ष हुए आज़ादी मिले, मैकाॅले से छुट्टी मिले। मगर हिंदी का दुर्भाग्य कि अभी तक राजभाषा ही है। राष्ट्रभाषा ना बन पाई हिंदी। कवि भारत की बहकी, उच्छृंखल सामाजिक स्थिति में परिवारों की स्थिति का भी चित्र खींचते हैं “चमका है अंधियारा” कविता में मियां, बीवी, सास, ससुर, बेटे, बहू के बीच चौड़ी होती खाईं। घर में हानिकारक फ़ास्ट फ़ूड की पैठ पर रोचक लाईनें लिखते हैं। उदाहरणार्थ “कोका-पेप्सी छोड़ कोई कुछ भी नहीं समझता/ छप्पन भोग ढीले पड़ गए, पीज्जा पर चटखारा।”

काव्य संग्रह में बड़ी दिलचस्प बहुत ही प्रभावशाली विभिन्न विषयों पर कविताएँ हैं। इनमें “सह रहे अंजाम” एक ऐसी कविता है जो भीतर तक हिला कर रख देती है। गागर में सागर सरीखी यह छोटी सी कविता देश की आज़ादी से लेकर अब तक की राजनीतिक स्थिति, नेताओं, पार्टियों, धर्मांधता, वामपंथ पर तीखा प्रहार करती है। जिनके राजनीतिक दाँव-पेंच के कारण देश असहनीय पीड़ा झेल रहा है। फौजी, देशवासी अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। देश की सुरक्षा ख़तरे में पड़ गई है। देश का विभाजन एक धोखा साबित हुआ है। इसकी टीस कवि को क्रोधित करती है। उनका क्षुब्ध मन कहता है “विभाजन कर देश का चाहा कि बचकर रहेंगे दिल में उजाले भ्रातृत्व का जो भाव रखा, क्या उसी का सह रहे अंजाम।” इस कविता की लाइनें झकझोर कर रख देती हैं। सोचने को विवश करती हैं कि देश किस हालात से किस हालात में पहुँच गया है। साथ ही यह भी कि कवि हरिहर झा सत्ताइस वर्षों से हज़ारों मील दूर दूसरे देश में रहते हुए भी कितना गहरे देश से जुड़े हुए हैं, कितना संवेदनशील हैं देश, देशवासियों के लिए। हरिहर जी के दोनों काव्य संग्रहों एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कविताओं को ध्यान में रखकर जब हम उन्हें सदाशिव श्रोत्रिय जी के मापदंड पर तौलते हैं तो यह कहना ग़लत ना होगा कि हरिहर जी की कविताएँ कमतर नहीं हैं। वह समाज के हर क्षेत्र को बारीक़ी से देखते हैं, चिंतन-मनन करते हैं। गुनते हैं। वर्तमान परिवेश का अपनी रचनाओं में सच परोसते हैं। श्री तेजेंद्र शर्मा हरिहर जी की रचनाओं के लिए कहते हैं “हरिहर झा के नवगीतों में ताज़गी है तो वहीं विषय आम आदमी के जीवन से जुड़े हुए भी हैं।’” उषा राजे सक्सेना संग्रह के संदर्भ में कहती हैं कि “वस्तुतः इस संग्रह में हरिहर जी अपरोक्ष ढंग से अपनी कविताओं के माध्यम से भारत में हो रही समकालीन घटनाओं के बारे में भी बातें करते हैं।” हरिहर जी के इस संग्रह के आधार पर दुनिया में भारत की वर्तमान तस्वीर को बहुत साफ़ देखा जा सकता है। उसकी संस्कृति समाज को समझा जा सकता है। समाज की सोच से परिचित हुआ जा सकता है।” प्रसिद्ध लेखक संपादक अरुण देव ने कविता के महत्व को रेखांकित करते हुए एक बार कहा था “किसी भी समाज की सांस्कृतिक बुनावट और वैचारिकी की सघन पहचान कविताएँ कराती हैं।”

हरिहर जी की कविताएँ इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि वह केवल वर्तमान का परिदृश्य ही नहीं बल्कि यह परिदृश्य भविष्य में क्या प्रभाव डालेगा इसका भी संकेत देती हैं। भाषा की दृष्टि से वह ऐसी राह चलते हैं कि आम पाठक भी सहजता से कविता का मर्म समझ सके। बेहद आम बोलचाल की भाषा में सरल शब्दों का संयोजन बहुत ही प्रभावी ढंग से करते हैं। जिन्हें पढ़ते हुए लगता है कि वह भवानी प्रसाद मिश्र जी के इस सिद्धांत का बड़ी सावधानी से पालन करते हैं कि “जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और उसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख!” हमें इस बात को स्वीकारना चाहिए कि जब हम कठिन शब्दों के प्रयोग पर विशेष बल दे रहे होते हैं तो निश्चित ही हम साहित्य को क्षति पहुँचा रहे होते हैं। हम पाठक और साहित्य के बीच गहरी खाईं खोद रहे होते हैं। सरल बोलचाल की भाषा में भी गंभीर बातें कही जा सकती हैं। ऐसा साहित्य ही पाठकों के हृदय में स्थान बना पाता है। उन्हें स्थाई रूप से स्वयं से जोड़े रहने में सफल होता है। वर्ड्सवर्थ भी आम बोलचाल की भाषा में काव्य रचना को उचित मानते थे। यह काव्य संग्रह एक ऐसे व्यक्ति का संग्रह है जो परदेश में बैठा अपने देश के हालात से चिंतित है। समय रहते चेत जाने, वर्तमान और भविष्य को सुदृढ़ बनाने का आह्वान कर रहा है। इन कविताओं में उसकी बेचैनी यह स्पष्ट बताती है कि सब कुछ बेहतर हो जाने तक उसका रचनाकर्म चलता रहेगा। और इसके बाद वह चुप ना बैठकर ख़ुशी के गीत गाएगा।

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