हिन्दी: राष्ट्रीय चेतना का पर्याय
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. शोभा श्रीवास्तव1 Sep 2020 (अंक: 163, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
भाषा विचारों की वाहिका शक्ति है। वैचारिक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है- भाषा। भाषा मानव के लिए वह वरदान है जिसके माध्यम से वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा अपना विशिष्ट एवं श्रेष्ठतम स्थान रखता है। सभ्यता व संस्कृति के विकास के परिणाम स्वरूप भाषा राष्ट्रीय व सांस्कृतिक चेतना का मूलभूत आधार सिद्ध हुई है। इस परिप्रेक्ष्य में समूची आर्य संस्कृति को गर्वित करने वाली संस्कृत भाषा की तनया के रूप में हिंदी भाषा भारत के राष्ट्रीय व सांस्कृतिक चेतना का आधार है।
स्वतंत्रता से पूर्व सदियों तक भारत में विदेशी शासन का वर्चस्व रहा जिसने राष्ट्र की देशीय भाषाओं को कभी खुलकर पनपने का अवसर ही नहीं दिया किंतु इन देशीय भाषाओं के साथ जनता की भावनाएँ इस क़दर जुड़ी रहीं कि उन्होंने भारतीय संस्कृति की गरिमा को ज़रा भी क्षति नहीं पहुँचने दी। स्वतंत्रता के पश्चात इस बात पर विशेष चिंतन किया गया कि भारत में अनेक प्रांतीय भाषाओं के प्रचलन के बावजूद कोई एक ऐसी केंद्रीय भाषा अवश्य होनी चाहिए जो कि संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोए रखे और जनतंत्र की सुदृढ़ शक्ति का स्वरूप प्राप्त कर सके क्योंकि जन भाषा की सुदृढ़ता ही जनतंत्र की सुदृढ़ता का आधार है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सन १९४७ में स्वतंत्रता के पश्चात यह आशा और विश्वास सर्वथा स्वाभाविक था कि देश की अपनी भाषा ही राष्ट्रभाषा का स्वरूप धारण कर राष्ट्र की एकता व सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण का शंखनाद करेगी। १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा के बहुसंख्यक सदस्यों ने हिंदी के पक्ष में मतदान करके इस आशा को चरितार्थ भी किया किंतु पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव इस दिशा में प्रश्न चिह्न बना रहा। पर भारतीय जनमानस ने हिन्दी को अपनी मातृभाषा के रूप में आत्मिक रूप से स्वीकार कर ही लिया था । हिन्दी के प्रति भारतीय जनता का प्रेम इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने हिन्दी को अपनी मातृभाषा का गौरव प्रदान किया।
संसार के अन्य संबंधों में माता का विकल्प कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकता और जब माता का कोई विकल्प नहीं होता तो मातृभाषा का कोई विकल्प कैसे हो सकता है। हिन्दी भारत की केंद्रीय भाषा है। इस रूप में वह प्रांतीय व्यवहार का साधन है तथा प्रदेश की विभिन्न संस्कृतियों को समर्थता पूर्वक अभिव्यक्त करने वाली शक्ति है। हिन्दी की सार्वदेशिकता हमारी राष्ट्रीय भावना से प्रेरित है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हिन्दी के पीछे राष्ट्रीय शक्ति काम कर रही है। भारत के विभिन्न प्रदेश पृथक-पृथक विशेषता से युक्त हैं। प्रादेशिक भाषाओं में अतुल व श्रेष्ठ साहित्य उपलब्ध हैं । इन साहित्यों को अखिल भारत के मंच पर लाने तथा जन-जन को इनसे लाभान्वित करने का कार्य हिन्दी ही कर सकती है। हिन्दी भारत की उपज है। अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साथ हिन्दी का अनन्य संबंध है। हिन्दी भारतीय भाषाओं की सखी है अतः हिन्दी भारतीय आर्य भाषाओं की प्रतिनिधि भाषा के रूप में सतत आदरणीय है।
हिन्दी केंद्रीय भाषा के रूप में भारत की एकता का आधार है। वर्तमान में अनेक देशों में हिन्दी भाषा-भाषी निवासियों की बड़ी संख्या है। इस प्रकार हिन्दी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बनाए रखने के गुण भी स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं । स्वभाषा के बिना देश की जनता का विकास संभव नहीं। अतः भारतीय राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए हिन्दी की उत्तरोत्तर प्रगति की आवश्यकता है क्योंकि राष्ट्रभाषा का प्रश्न राष्ट्र की एकता से संबंध रखता है। संविधान के अंतर्गत भारत को विशाल एकता के सूत्र में पिरोए रखने का संकल्प लिया गया है अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रीय एकता की संकल्पना को फलीभूत करने हेतु राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी जैसी समर्थ भाषा की आवश्यकता है। राष्ट्रभाषा के प्रति निष्ठा, आस्था व आदर की भावना ही राष्ट्र व समाज की अस्मिता की कसौटी है। किंतु यह चिंता का विषय है कि वर्तमान समाज में हमारी नई पीढ़ी में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति प्रेम व श्रद्धा की भावना वैसी दिखाई नहीं देती जैसे कि एक समृद्ध परंपरा वाले राष्ट्र के नागरिकों में अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति होनी चाहिए । जहाँ तक विदेशी भाषाओं के बहुप्रचलन का प्रश्न है तो यह स्पष्ट है कि भाषाएँ सदा ज्ञान प्राप्ति का सशक्त माध्यम होती हैं। बहु भाषा ज्ञान से विश्व संस्कृति के व्यापक स्वरूप को समझकर विश्व बंधुत्व की भावना में वृद्धि की जा सकती है। किंतु निज संस्कृति को समझे बिना अन्य संस्कृति का ज्ञान जड़ विहीन वृक्ष की भाँति ही होगा। और निज संस्कृति का गौरव प्राप्त होता है – निज भाषा के ज्ञान से। हिन्दी भाषा के अनन्य उपासक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बहुत पहले कह दिया था कि–
"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल॥
स्पष्ट है कि स्वयं को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ने के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी का ज्ञान अत्यावश्यक है। राष्ट्रभाषा हिन्दी को उसका उचित स्थान न देना मानसिकता दासता का परिचायक होगा। अत: राष्ट्रीय स्वतंत्रता को पूर्ण अर्थवान बनाने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि वर्तमान पीढ़ी और समाज राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्य बोध का परिचय देते हुए हिन्दी भाषा के विकास और उत्थान हेतु कृत संकल्पित हो जाए।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"लघुकथा वृत्त" का जनवरी 2019 अंक
साहित्यिक आलेख | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानीलघुकथा के इकलौता मासिक समाचार पत्र "लघुकथा…
'सौत' से 'कफ़न' तक की कथा यात्रा - प्रेमचंद
साहित्यिक आलेख | डॉ. उमेश चन्द्र शुक्लमुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1980 को…
21वीं शती में हिंदी उपन्यास और नारी विमर्श : श्रीमती कृष्णा अग्निहोत्री के विशेष संदर्भ में
साहित्यिक आलेख | डॉ. पद्मावतीउपन्यास आधुनिक हिंदी साहित्य का जीवंत रूप…
प्रेमचंद साहित्य में मध्यवर्गीयता की पहचान
साहित्यिक आलेख | शैलेन्द्र चौहानप्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख "महाजनी…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
गीत-नवगीत
- अधरों की मौन पीर
- आओ बैठो दो पल मेरे पास
- ए सनम सुन मुझे यूँ तनहा छोड़कर न जा
- गुरु महिमा
- गूँजे जीवन गीत
- चल संगी गाँव चलें
- जगमग करती इस दुनिया में
- ठूँठ होती आस्था के पात सारे झर गये
- तक़दीर का फ़साना लिख देंगे आसमां पर
- तू मधुरिम गीत सुनाए जा
- तेरी प्रीत के सपने सजाता हूँ
- दहके-दहके टेसू, मेरे मन में अगन लगाये
- दीप हथेली में
- फगुवाया मौसम गली गली
- बरगद की छाँव
- मौन अधर कुछ बोल रहे हैं
- रात इठला के ढलने लगी है
- शौक़ से जाओ मगर
- सावन के झूले
- होली गीत
- ख़ुशी के रंग मल देना सुनो इस बार होली में
कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
नज़्म
कविता-मुक्तक
दोहे
सामाजिक आलेख
रचना समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं