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कोई बात

कुछ न कुछ तो बात होगी,
क्यों दुखों की मार खा भी,
चाहता जीवन है प्राणी
कुछ न कुछ तो बात होगी
ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हों या
झड़बेरियों की छोटी झाड़ी,
पात हर पतझड़ में झड़ते,
मोटे तने या जड़ तक भी कटते,
कोंपलें फिर नन्हीं, कोमल,
मुस्कुरा जीवन दिखातीं।
कुछ न कुछ तो बात होगी॥

दुख से ज्यों दम घुटा सा,
फिर भी दु:खी मरता नहीं है,
भूख से तड़पता, पर
दिनों तक साँस चलती,
यों लगा कई बार - स्वयं ही
अंत जीवन का करें पर,
फिर सरकती ज़िन्दगी,
हाथ पकड़े हम सभी का।
कुछ न कुछ तो बात होगी॥

क्या ऐसा इस धरा पर,
बाँधता जो नयन, मन को?
क्या अनिश्चित राह - मृत्यु,
भय दिखाती हम सभी को?
क्या बात इतनी भर है कि
पार जीवन हम न जाने,
या पँच तत्त्वी मोह-मारा,
चाहता हर चीज़ छूना
साँस में भर हवा,
नयन से हर दृश्य छूना।
कुछ न कुछ तो बात होगी॥

जग-चित्र में भूला, भ्रमा सा
योनियों रहता भटकता,
तीन-तापों में जला पर,
क्या कभी उनसे उभरता?
दृष्टि में आकार विष्णु,
शिव, ब्रह्म का समाए,
वासना से हृदय मंडित,
 माया रानी को है भजता,
यह तेरा संसार क्यों असार
मुझे पल भर न लगता?
क्यों हृदय मेरा तेरे इस
चित्र में ऐसा समाया?
पार जा इसके तुझे
कभी न मैं ढूँढ पाया,
कुछ न कुछ तो बात होगी॥

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