चिट्ठियाँ और चुप्पियाँ
कथा साहित्य | कहानी डॉ. सत्यवान सौरभ15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
भिवानी ज़िले के एक छोटे से गाँव ‘निवाड़ा’ में एक जीर्ण-शीर्ण सा डाकघर था। मिट्टी की दीवारें, छप्पर की छत और सामने एक पुराना नीम का पेड़, जिसकी छाँव में बैठकर बुज़ुर्ग चिट्ठियाँ पढ़ते थे। उसी डाकघर में चालीस वर्षों से कार्यरत था गोपाल डाकिया—गाँव की धड़कन जैसा, हर घर का अपना आदमी।
गोपाल सिर्फ़ चिट्ठियाँ नहीं लाता था, वह बेटों की नौकरी की ख़बर, बेटियों की ससुराल की बातें और कहीं दूर पढ़ने गए बच्चों की ममता भरी स्याही भी साथ लाता था।
हर किसी के पास उसकी अपनी कहानी थी—गोपाल की वज़ह से।
गाँव में एक लड़की थी सविता। और शहर में एक लड़का था रमेश—इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता था। दोनों के बीच प्रेमपत्रों का सिलसिला गोपाल डाकिए की उँगलियों के ज़रिए चलता रहा। हर शुक्रवार सविता, नीम के नीचे बैठी, गोपाल से पूछती, “कुछ आया है?”
गोपाल मुस्कुराता और लिफ़ाफ़ा आगे बढ़ा देता। सविता की आँखें चमक जातीं। कभी उसमें कविता होती, कभी सपना, कभी शादी का वादा।
इन्हीं चिट्ठियों में दो दिलों ने भविष्य की कल्पना कर ली थी।
लेकिन सब कुछ हमेशा प्रेम से नहीं चलता। सविता के पिता रामस्वरूप को यह रिश्ता मंज़ूर नहीं था। जात-पाँत की दीवार, ज़मीन-जायदाद का घमंड, और समाज की निगाहें—इन सब ने चिट्ठियों की स्याही को ज़हर बना दिया।
रामस्वरूप ने रमेश पर बलात्कार और धोखा देने का केस दर्ज करवा दिया।
और वहीं से एक और दरवाज़ा खुला—कचहरी का दरवाज़ा।
अब सविता हर शुक्रवार चिट्ठियों का इंतज़ार नहीं करती थी, बल्कि तारीख़़ की अगली पर्ची का।
कचहरी में रमेश का वकील और रामस्वरूप का वकील, दोनों अपने-अपने कागज़ों में “सविता की सहमति” और “रमेश की नीयत” के तर्क खोज रहे थे।
प्यार की चिट्ठियाँ अब सबूत बन चुकी थीं। अदालत में उन्हें पेश किया गया। जज साहब ने कहा, “यह पत्र क्या किसी नाबालिग़ को फुसलाने का प्रमाण नहीं है?”
गोपाल को गवाही के लिए बुलाया गया। उसने काँपते स्वर में कहा, “हुजूर, मैंने तो बस चिट्ठियाँ दी थीं . . . किसी अदालत के लिए नहीं, दो दिलों के लिए।”
मगर कोर्ट को दिलों की भाषा नहीं आती।
सविता अब चुप रहने लगी थी। चिट्ठियों की जगह केस डायरी आ गई थी। माँ-बाप ने घर से बाहर निकलने पर रोक लगा दी। लड़की अब “इज्ज़त” बन चुकी थी, जिसका मोल अदालत में तय हो रहा था।
हर तारीख़ पर सविता से वही सवाल पूछे जाते:
“क्या आपने अपनी इच्छा से चिट्ठियाँ लिखीं?”
“क्या आप दोनों ने शारीरिक सम्बन्ध बनाए?”
“क्या लड़का शादी से मुकर गया?”
उसकी आत्मा चीत्कार करती, “हाँ, मैंने प्रेम किया था, जुर्म नहीं!”
मगर अदालत प्रेम नहीं सुनती, वो सिर्फ़ बयान दर्ज करती है।
इस बीच गाँव का डाकघर बंद कर दिया गया।
“अब सब कुछ डिजिटल है, चिट्ठियाँ कौन भेजता है?”— ये कहकर पोस्टल विभाग ने गोपाल को रिटायर कर दिया।
गोपाल उस दिन रोया था। नीम के नीचे बैठकर उसने आख़िरी चिट्ठियाँ जलाईं, सिवाय एक के—सविता की चिट्ठी रमेश को, जो उसने कभी भेजी नहीं थी। उसमें लिखा था, “अगर ये दुनिया हमें अलग कर दे, तो याद रखना . . . मेरी आत्मा तुम्हारे नाम की स्याही से रँगी है।”
तीन साल बाद, कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया, “युवक निर्दोष है। सम्बन्ध आपसी सहमति से थे। लड़की बालिग़ थी। केस झूठा था।”
मगर तब तक रमेश अमेरिका चला गया था, शादी कर ली थी।
और सविता? वह चुप थी। अदालत से बाहर निकलकर एक संवाददाता ने पूछा, “आप न्याय से संतुष्ट हैं?”
उसने सिर झुका लिया। बोली, “मैं प्रेम चाहती थी, इंसाफ़ नहीं।”
गोपाल अब अकेला रहता है। वह पुरानी चिट्ठियों को सँभालकर रखता है—मानो प्रेम का संग्रहालय।
एक दिन किसी पत्रकार ने पूछा, “काका, अब आप क्या करते हैं?”
गोपाल बोला, “डाकिया था . . . अब गवाही देने वालों की क़तार में हूँ। पहले प्रेम की डाक पहुँचाता था, अब तारीख़़ की सूचना देने वालों की भीड़ देखता हूँ। हैरत है . . . डाकखाने कम हो गए और कचहरियाँ बढ़ती चली गईं . . . “
एक नई पीढ़ी अब ईमेल और व्हाट्सऐप पर बात करती है। उन्हें चिट्ठियों की अहमियत नहीं मालूम।
पर एक दिन, एक लड़की अपने कॉलेज में प्रेम पत्रों पर प्रोजेक्ट बना रही थी। उसने गोपाल से मुलाक़ात की।
गोपाल ने सविता की वह चिट्ठी उसे सौंप दी, और कहा, “अगर तुम कभी फिर चिट्ठियों की दुनिया बसा सको, तो इसे याद रखना—प्रेम को सबूत मत बनने देना।”
चिट्ठियाँ रिश्तों की रचनात्मकता थीं, और कचहरियाँ टूटते रिश्तों का दस्तावेज़।
आज डाकखाने वीरान हैं, और अदालतें भीड़ से भरीं। संवाद की जगह विवाद ने ले ली है। यह कहानी सविता और रमेश की नहीं, हम सबकी चेतावनी है—कि यदि हमने रिश्तों में संवाद, भरोसा और सच्चाई नहीं बचाई, तो हर प्रेम एक केस बन जाएगा, और हर भावना एक तारीख़़।
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