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सहनशीलता की चुप्पी

 

जब तक मन सहता रहा, 
हम अपनों में गिने जाते रहे। 
हर तिरस्कार को अपनी ही चूक मान
हम क्षमा-पथ पर चलते रहे। 
 
पर समय भी तो कभी थमता नहीं, 
और आत्मा भी कहीं न कहीं थकती है। 
जब हृदय की कोमलता घिसने लगे, 
तो रिश्तों की परिभाषाएँ बदलने लगती हैं। 
 
मौन को जिसने कमज़ोरी समझा, 
वह शायद शब्दों की गरिमा नहीं जानता। 
क्योंकि चुप रहना—
कभी कायरता नहीं, 
बल्कि अन्तिम चेतावनी होती है। 
 
एक दिन, 
जब आत्म-सम्मान उठ खड़ा होता है, 
तो फिर सम्बन्ध भी
संविधान नहीं रह जाते—
वे घटनाएँ बन जाते हैं, 
जिन्हें हम केवल याद नहीं करते, 
बल्कि उनसे सबक़ लेते हैं। 
 
अपनों का अपमान, 
सबसे बड़ा पराया बना देता है। 
और तब, 
एक टूटता हुआ मन
केवल मौन नहीं होता—
वह भविष्य का इतिहास रचता है। 

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