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दक्ष की दीपशिखा

 

ब्रह्मा के मानस पुत्र जो, यज्ञों के अधिपति कहाए, 
धूप-दीप से पावन धरती, जिनके पदचिह्न सुलगाए। 
दक्ष प्रजापति नाम जिनका, अनुशासन जिनकी वाणी, 
धर्म की रेखाएँ खींचें, रचें सृष्टि की नई कहानी। 
 
कन्याएँ थीं सप्त सागरों सी, शील-संस्कारों की खान, 
बाँधीं सब ऋषियों को बंधन, किया नवजीवन का दान। 
सावित्री से संध्या, रोहिणी से काल का क्रम, 
चंद्र को सौंपा वह विश्वास—समय बने सुंदरतम। 
 
पर जब हुआ शिव से विवाह, सती ने उठाई बात, 
दक्ष न माने योगी को, देखा बस औघड़ ठाठ। 
ना पहचाना आत्म-स्वरूप, बस देखा भस्म का रंग, 
मर्यादा में उलझ गया, बुन बैठा तिरस्कार का जाल तंग। 
 
यज्ञ रचा पर भाव नहीं था, शिव को आमंत्रण खो गया, 
सती गईं सम्मान हेतु, और प्राणों से रो गईं। 
शिव ने खोया संयम फिर, वीरभद्र बन गरजे आकाश, 
बिन भक्ति यज्ञ हो गया राख, टूटा धर्म का पलाश। 
 
दक्ष का सिर गया कट, पर शिव ने फिर दिया जीवन, 
बकरी-मुख से पुनः उठाया—सीख यही, क्षमा है साधन। 
सिखाया जग को यह बात—ना हो धर्म में दंभ, 
अनुशासन से बड़ा प्रेम, और प्रेम में छुपा है यज्ञ। 
 
आज भी जब हो यज्ञ कहीं, सती की चिता सुलगती है, 
जब बेटी की ना सुनी जाए, हर अग्नि मौन भड़कती है। 
दक्ष सिखा गए संयम, पर शिव ने सिखाया त्याग, 
धर्म वहीं जहाँ समता हो, नहीं जहाँ केवल भाग। 
 
हे दक्ष! तुम्हारी जयंती पर, दीप जलाएँ ज्ञान के, 
क्योंकि तुमने यज्ञ किया था—पर सीखा अग्निपथ प्राण के। 
श्रद्धा से झुकते हैं शीश, पर आँखें अब खोलेंगे, 
दूसरों की राह भी सुनेंगे—यही तुमसे बोलेंगे। 

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