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लालच और रिश्तों की त्रासदी

 

(मानवीय रिश्तों में बढ़ते स्वार्थ, विवाद और लोभ पर आधारित) 
  
लालच आँखें मूँद दे, भेद न देखे प्रीत। 
भाई भाई शत्रु बने, टूटे अपने मीत॥
 
धन के पीछे दौड़कर, भूले यूँ सम्मान। 
घर आँगन में छा गया, कलह और अपमान॥
 
ममता होकर लालची, रिश्ते करे उदास। 
स्वार्थ की इस आँच में, जले सगे विश्वास॥
 
लोभ अँधेरा बन गया, बुझा स्नेह का दीप। 
अपने ही अब भूलते, प्रेम सुधा की नीप॥
 
रिश्ते टूटे लोभ से, मन में पड़ी दरार। 
सोना चाँदी क्या करे, बुझी प्यार की धार॥
 
मायाजाल में फँस गए, मोह भरे सब लोग। 
सच्चे मन की बात अब, लगती जैसे रोग॥
 
सिर पर चढ़ी स्वार्थ की, ऐसी काली छाँव। 
बाप–पुत्र में भी रहा, आज न प्रेम न ठाँव॥
 
सुख का सपना देखकर, सबने तोड़ी रीत। 
धन के ख़ातिर बिक गई, सौरभ सबकी प्रीत॥
 
जहाँ भरोसा था कभी, आज संदेह राज। 
निगले रोज़ मनुष्यता, शैतानी अंदाज़॥
 
लालच की इस आग में, जलते रिश्ते रोज़़। 
पिघले मन की मोम सी, करुण कथा की खोज॥
 
लालच और विवाद अब, बन बैठे यूँ सौत, 
भाई की भाई रचे, अन्धे होकर मौत॥

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