डिजिटल राखी
कथा साहित्य | कहानी डॉ. सत्यवान सौरभ15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
रक्षाबंधन की सुबह थी। मुंबई के एक छोटे से अपार्टमेंट में रहने वाली श्रद्धा की आँखें अलार्म के तीसरी बार बजने के बाद खुलीं। खिड़की से बाहर झाँका तो बादलों से ढका आसमान और हल्की फुहारें उसके मन की हलचल से मेल खा रही थीं। लेकिन आज कुछ अलग था—आज रक्षाबंधन था।
श्रद्धा की माँ हर साल इस दिन पर घर को फूलों से सजाती थीं, मिठाई बनती थी, और भाई को तिलक लगाकर राखी बाँधने के बाद आरती उतारी जाती थी। लेकिन इस बार सब कुछ बदल चुका था। अब वह अकेली थी। माँ-पापा को गए हुए दो साल हो चुके थे, और भाई ऋषभ अमेरिका में था।
श्रद्धा ने अपने मोबाइल पर व्हाट्सएप खोला और भाई को “हैप्पी राखी भैया” का मैसेज भेज दिया। थोड़ी देर बाद उसने अपने लैपटॉप पर ज़ूम मीटिंग का लिंक खोल लिया—यह ऑफ़िस मीटिंग नहीं, भाई के साथ एक वर्चुअल राखी सेरेमनी की थी।
लिंक पर क्लिक करते ही स्क्रीन पर ऋषभ की मुस्कुराती हुई शक्ल आई।
“हाय दीदी! कैसी हो?”
“ठीक हूँ भैया . . . तुम्हें राखी की ढेर सारी शुभकामनाएँ।” श्रद्धा ने कैमरे के सामने एक राखी दिखाई, और फिर पास रखे एक छोटे से थाल में तिलक, चावल और मिठाई का इंतज़ाम कर लिया।
ऋषभ मुस्कुराया, “इस बार कुछ ख़ास किया है मैंने।”
“क्या?”
“तूने जो राखी मुझे मेल से भेजी थी, वो मैंने 3D प्रिंटर से प्रिंट की . . . और फिर उसको फ़्रेम में लगवा लिया। मेरे वर्कडेस्क पर है।”
श्रद्धा की आँखें भीग गईं। उसने जानबूझ कर राखी इस बार अमेरिका भेजी थी, भले ही हर साल भाई मना करता था। आज पहली बार उसे लगा कि डिजिटल दूरी के बावजूद रिश्ता ज़िंदा है।
श्रद्धा ने तिलक किया, मिठाई खिलाई (स्क्रीन पर ही सही), और राखी बाँधी। ऋषभ ने भी डिजिटल गिफ़्ट कार्ड भेजा, साथ में एक लंबा सा ईमेल:
“दीदी, हर साल तेरा बिना बोले सब कुछ समझ जाना, मेरी छोटी-छोटी बातों पर मुस्कुरा देना, और बिना कहे ही मेरी दुनिया को ठीक कर देना . . .
इन सबका कोई मोल नहीं है।
मैं जानता हूँ, तू अब अकेली है। पापा-मम्मी के जाने के बाद ये त्योहार भी जैसे बेमानी हो गया था, लेकिन तूने कभी मुझे फ़ील नहीं होने दिया।
तू मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। राखी केवल धागा नहीं है, ये एक वादा है— कि चाहे मैं कितनी भी दूर रहूँ, तुझे हमेशा अपनी हिफाज़त में रखूँगा।
और हाँ . . . अगली बार राखी पर मैं इंडिया आ रहा हूँ। रियल राखी के लिए।
–तेरा ऋषभ”
श्रद्धा की आँखों से आँसू बह निकले। उसके मन की सूनी राखी अचानक सबसे ख़ूबसूरत हो गई।
♦ ♦ ♦
श्रद्धा एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर डिज़ाइनर थी। वह अपने काम में माहिर थी, आत्मनिर्भर और संवेदनशील भी। लेकिन हर बार रक्षाबंधन आते ही वह एक बच्ची बन जाती थी। माँ के हाथों की बनी खीर, पापा की शरारतें, और ऋषभ का मिठाई के लिए ज़िद करना—ये सब यादें आज भी ताज़ा थीं।
आज उसने ऑफ़िस से छुट्टी ली थी। एक ओर ज़ूम कॉल से भाई को राखी बाँध दी थी, पर दिल का कोना अब भी अधूरा था। वह बालकनी में बैठी थी, आसमान की ओर देख रही थी।
तभी दरवाज़े की घंटी बजी।
“कौन हो सकता है?” उसने मन में सोचा।
दरवाज़ा खोला तो सामने डिलीवरी बॉय खड़ा था। हाथ में एक ख़ूबसूरत पैकेट था।
“मैम, यह आपके लिए अमेरिका से है।”
श्रद्धा ने हस्ताक्षर किए और पैकेट खोला। उसमें एक छोटा सा म्यूज़िकल बॉक्स था। जैसे ही उसने ढक्कन खोला, एक प्यारी सी धुन बजने लगी— वही गाना जो वो और ऋषभ बचपन में मिलकर गाते थे: “फूलों का तारों का, सबका कहना है, एक हज़ारों में मेरी बहना है”—
बॉक्स के अंदर एक पेंडेंट था, जिसमें उनके बचपन की फोटो जड़ी थी, और एक छोटा सा कार्ड:
“दीदी,
यह हमारे बचपन की आवाज़ है। ताकि जब भी तू ख़ुद को अकेला महसूस करे, यह तुझे याद दिला दे कि मैं हमेशा तेरे साथ हूँ।
–ऋषभ”
श्रद्धा ने वह पेंडेंट अपने गले में पहन लिया। वह अब मुस्कुरा रही थी, और उस मुस्कुराहट में आँसू भी थे, सुकून भी।
♦ ♦ ♦
शाम को श्रद्धा अपनी कॉलोनी के बच्चों के साथ मिलकर एक छोटा-सा राखी समारोह आयोजित करती है। वह जानती है कि बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिनके भाई दूर रहते हैं या हैं ही नहीं। वह उन बच्चों को राखी बाँधने का अवसर देती है और उन्हें बताती है कि भाई-बहन का रिश्ता केवल ख़ून का नहीं होता, भावनाओं का भी होता है।
वहाँ एक छोटी बच्ची, सिम्मी, उससे पूछती है, “दीदी, अगर मेरा कोई भाई नहीं है तो क्या मैं किसी को राखी नहीं बाँध सकती?”
श्रद्धा मुस्कुरा कर कहती है, “तू जिसे अपना मीत समझे, उसे राखी बाँध सकती है। रक्षा का रिश्ता प्यार का होता है, ख़ून का नहीं।”
वह बच्ची अपनी एक सहेली को राखी बाँधती है और सब तालियाँ बजाते हैं। श्रद्धा की आँखों में चमक थी। उसने महसूस किया कि रक्षाबंधन अब केवल भाई-बहन तक सीमित नहीं, यह एक सामाजिक भावना बन गया है— एक-दूसरे की रक्षा का संकल्प।
♦ ♦ ♦
रात को जब श्रद्धा ने अपने कमरे की लाइट बंद की, तो दीवार पर उस पेंडेंट की छाया थी। जैसे उसकी स्मृतियाँ अब भी उसके पास थीं। मोबाइल पर ऋषभ का एक और मैसेज आया:
“दीदी, अगली बार जब तू राखी बाँध रही होगी, मैं तेरे सामने बैठा रहूँगा . . . कोई स्क्रीन नहीं, कोई दूरी नहीं।”
श्रद्धा ने रिप्लाई किया:
“मैं इंतज़ार करूँगी, भैया। इस बार राखी सिर्फ़ डिजिटल नहीं होगी . . . असली होगी, गर्माहट के साथ।”
वह मुस्कुराई, और चैन से सो गई।
रिश्ते बदलते दौर के साथ अपने रूप बदल सकते हैं, लेकिन उनकी आत्मा हमेशा वही रहती है। डिजिटल दुनिया में भी अगर भावनाएँ सच्ची हों, तो दूरी कोई मायने नहीं रखती। रक्षाबंधन केवल एक धागा नहीं, वह विश्वास की डोर है, जो हर दिल से जुड़ सकती है।
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