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फ़ैसला

 

पिता ने कहा, “तू घर बैठ जा बेटा, लड़की को नौकरी करने दे। उसकी तनख़्वाह ज़्यादा है।”

बेटा चुप रहा। माँ ने पहली बार बेटे के पक्ष में कुछ नहीं कहा। लड़की ने भी नहीं—वो तो बस कमरे में जाकर रोई। 

फ़ैसला हो चुका था। लेकिन किसी ने पूछा नहीं कि इस ‘फ़ैसले’ में स्वाभिमान, लिंग समानता, या सपने कहाँ हैं? 

दूसरे दिन से बेटा चाय बनाने लगा, और लड़की दोहरी शिफ़्ट में गई। बाहर से सब सही दिख रहा था। लेकिन भीतर कुछ टूट गया था—सबमें। 

शाम को बेटे ने पूछा, “क्या मेरे सपने अब सिर्फ़ रसोई तक सीमित रहेंगे?” 

लड़की ने कहा, “और क्या मेरे सपने अब सिर्फ़ घर की कमाई बनकर रह जाएँगे?” 

माँ सुन रही थी—और सोच रही थी कि क्या हमने सही किया? 

पिता के चेहरे पर संतोष था, लेकिन वह भी भीतर से जानता था कि संतुलन की आड़ में एक पक्ष ने स्वीकृति दी है, और दूसरे ने बलिदान। 

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