अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आधी सच्चाई का लाइव तमाशा: रिश्तों की मौत का नया मंच

 

आजकल लोग निजी झगड़ों और रिश्तों की परेशानियों को सोशल मीडिया पर लाइव आकर सार्वजनिक करने लगे हैं, जहाँ आधी-अधूरी सच्चाई दिखाकर सहानुभूति बटोरी जाती है। ‘सुट्टा आली’ और ‘मुक्का वाली’ जैसे मामलों में देखा गया कि जब दूसरा पक्ष सामने आया, तो पहले समर्थन करने वाले लोग उलझन में पड़ गए। सोशल मीडिया अब इंसाफ़ का मंच नहीं, तमाशा बनता जा रहा है, जहाँ रिश्ते कंटेंट बनकर बर्बाद हो रहे हैं। इस डिजिटल दिखावे से बाहर निकलने का रास्ता संवाद, संयम और सच्चाई पर आधारित समझदारी है। रिश्तों को बचाने के लिए पहले उन्हें सार्वजनिक न करें, बल्कि निजी स्तर पर सुलझाने की कोशिश करें। आधी सच्चाई दिखाकर न्याय माँगना रिश्तों की मौत का कारण बन सकता है। 

—डॉ. सत्यवान सौरभ

घर के अंदर की बातें अब घर की नहीं रहीं। एक वक़्त था जब दीवारों के भीतर जो होता था, वही दीवारों में दफ़न होता था। पर अब दीवारें भी वाई-फ़ाई से जुड़ चुकी हैं और रिश्ते डेटा पैक पर टिके हैं। बात-बात पर फ़ेसबुक लाइव, इंस्टा स्टोरी, और यूट्यूब व्लॉग— यही अब नए ज़माने का रिश्ता-निपटान मंच बन गए हैं। कोई थोड़ा-बहुत झगड़ा हुआ नहीं, लोग कैमरा ऑन करके “ऑडियंस” के सामने आँसू बहाने लगते हैं। और उस रोते चेहरे के पीछे कितनी सच्चाई है, इसका किसी को अंदाज़ा नहीं होता— क्योंकि कहानी का दूसरा पहलू अक्सर बेमौसम आता है, या कभी आता ही नहीं। 

रोते हुए लाइव, और सहानुभूति का सैलाब

आजकल रिश्तों में सहनशीलता नहीं, स्क्रिप्टिंग आई है। जैसे ही किसी झगड़े या मनमुटाव की चिंगारी उठती है, लोग अपने कैमरे चालू कर लेते हैं और “लाइव” आकर ख़ुद को पीड़ित घोषित कर देते हैं। आवाज़ में कँपकँपी, आँखों में आँसू, और शब्दों में दर्द—सब कुछ इतना ‘रियल’ होता है कि देखने वाला पल भर में ‘इमोशनल इन्वेस्ट’ कर बैठता है। 

पर सवाल ये है कि क्या वो सच्चाई का पूरा चेहरा देख रहा है, या बस आधा? 

आज की मिसाल लीजिए—सोशल मीडिया पर पहले ‘सुट्टा आली’ प्रकरण छाया रहा और अब ‘मुक्का वाली’ मामला। दोनों में ही एक पक्ष ने पहले सोशल मीडिया पर आकर सहानुभूति बटोरी। लोग टूट पड़े समर्थन में, ट्रोलिंग शुरू हुई, इल्ज़ामों की झड़ी लग गई। लेकिन जब कुछ समय बाद दूसरा पहलू सामने आया, तो वही हमदर्द दोराहे पर खड़े दिखे। कोई खिसियाया, कोई चुप हो गया, और कुछ ने हाथ जोड़ लिए—“हमें तो पूरी बात पता ही नहीं थी।” 

सोशल मीडिया: इंसाफ़ का नया अदालत? 

अब सवाल उठता है— क्या सोशल मीडिया कोई अदालत है, जहाँ एकतरफ़ा सबूत पेश करके दूसरे पक्ष को बिना सुने सज़ा सुनाई जा सकती है? क्या हम सब यूज़र्स अब जज बन चुके हैं? और अगर हाँ, तो हमारी अदालत में अपील की व्यवस्था कहाँ है? 

दिक़्क़त ये है कि आजकल लोग जज नहीं, जजमेंटल बन चुके हैं। किसी भी मुद्दे को बिना सोचे, बिना समझे, बिना जाँचे—बस वायरल होने की स्पीड से नापते हैं। ‘कौन सही है’ से ज़्यादा अहम हो गया है ‘कौन पहले लाइव आया’। 

रिश्ते अब रील और रेटिंग का हिस्सा बन गए हैं

जब एक रिश्ते की दरार को सार्वजनिक किया जाता है, तो उसका असर केवल उस रिश्ते पर नहीं, समाज पर भी पड़ता है। यह एक विकृति बनती जा रही है, जहाँ निजी दर्द सार्वजनिक मनोरंजन बन रहा है। और इसे प्रोत्साहन मिलता है व्यूज़, लाईक्स और फॉलोवर्स की भूख से। एक जमाना था जब लोग अपने रिश्तों को बचाने के लिए कुछ भी कर जाते थे— आज लोग लाईक और शेयर के लिए अपने रिश्ते ख़ुद बर्बाद कर देते हैं। मीडिया से ज़्यादा, मिडियाई मानसिकता दोषी है

यह केवल ‘मीडिया ट्रायल’ का मुद्दा नहीं है। असली समस्या उस मानसिकता की है जो कैमरा ऑन होते ही ख़ुद को पीड़ित घोषित कर देती है और दर्शकों को जूरी बना देती है। यह ‘हाफ ट्रुथ पॉलिटिक्स’ अब राजनीति तक सीमित नहीं रही—यह अब हमारे घरों में घुस चुकी है। लोग अपने ग़ुस्से और दुख को शब्दों में नहीं, स्क्रिप्टेड कंटेंट में ढाल रहे हैं। और दर्शक भी, असल में मदद करने के बजाय, तमाशबीन बने रहते हैं— स्क्रीन के उस पार तालियाँ बजाते हुए। 

रिश्ते सहारे से ज़्यादा, स्क्रीन पर टिके हैं

इस डिजिटल युग में रिश्ते अब संवाद से नहीं, कंटेंट से चलने लगे हैं। पार्टनर से बात करने की जगह, लोग सोशल मीडिया पर ‘इंडीरेक्ट’ पोस्ट करते हैं। लड़ाई होती है, तो स्टोरी लगती है—“सब कुछ सहने की भी एक हद होती है।” और फिर लाईक, कमेंट और शेयर की बाढ़ आती है, जो उस रिश्ते के फटे कपड़े में और कील ठोक देती है। क्या कोई रास्ता है इस ‘डिजिटल ड्रामा’ से बाहर निकलने का? बिलकुल है। पर शुरूआत हमें ही करनी होगी। किसी भी झगड़े या विवाद को सार्वजनिक करने से पहले, अपने सबसे क़रीबी से निजी तौर पर बात करें। संवाद हर समस्या का पहला समाधान है। अगर मामला गंभीर है, तो परिवार, मित्र या थैरेपिस्ट की मदद लें। इंस्टाग्राम या यूट्यूब पर वीडियो बनाकर दुनिया से इंसाफ़ की उम्मीद न करें। अगर आप किसी का वीडियो या पोस्ट देख रहे हैं, तो एकतरफ़ा निर्णय न लें। हर कहानी के दो पहलू होते हैं, और कभी-कभी सच्चाई दोनों के बीच कहीं होती है। हर रिश्ता अपने आप में एक दुनिया होता है। उसे सार्वजनिक चौराहे पर न उधेड़ें। एक दिन वही दुनिया आपके ख़िलाफ़ खड़ी हो सकती है। 

आज जब हर व्यक्ति अपने हाथ में मीडिया लेकर घूम रहा है, तब सबसे बड़ा ज़िम्मेदार भी वही है। कैमरा ऑन करना आसान है, पर सच्चाई को ईमानदारी से दिखाना मुश्किल। रिश्ते भरोसे से बनते हैं, और भरोसे की बुनियाद संवाद से मज़बूत होती है, तमाशे से नहीं। हर बार लाइव आकर रोना-धोना करने से सहानुभूति तो मिल सकती है, लेकिन रिश्ते नहीं बचते। और जब दूसरा पक्ष सामने आता है, तो फिर न सिर्फ़ रिश्ता, बल्कि भरोसा भी मरता है— उस इंसान का भी और उस समाज का भी, जो बस ‘लाइव’ देखकर न्याय करने को तैयार बैठा था। इसलिए अगली बार जब कोई रोता हुआ वीडियो सामने आए—ज़रा रुकिए। सवाल पूछिए, दोनों पक्षों को सुनिए। क्योंकि असल इंसाफ़ वही है जो तटस्थ हो, और इंसाफ़़ के बिना कोई भी तमाशा बस एक और रिश्ते की मौत होती है—‘डिजिटल स्टेज’ पर। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!! 
|

(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…

अणु
|

मेरे भीतर का अणु अब मुझे मिला है। भीतर…

अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
|

वैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

दोहे

हास्य-व्यंग्य कविता

लघुकथा

कहानी

ललित निबन्ध

साहित्यिक आलेख

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

किशोर साहित्य कविता

काम की बात

पर्यटन

चिन्तन

स्वास्थ्य

सिनेमा चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. बाल-प्रज्ञान
  2. खेती किसानी और पशुधन
  3. प्रज्ञान
  4. तितली है खामोश