कहता है गणतंत्र!
काव्य साहित्य | दोहे डॉ. सत्यवान सौरभ1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
बात एक ही यूँ सदा, कहता है गणतंत्र।
बने रहें वो मूल्य सब, जन-मन हो स्वतंत्र।
संसद में मचता गदर, है चिंतन की बात।
हँसी उड़े संविधान की, जनता पर आघात॥
भाषा पर संयम नहीं, मर्यादा से दूर।
संविधान को कर रहे, सांसद चकनाचूर॥
दागी संसद में घुसे, करते रोज़ मख़ौल।
देश लुटे लुटता रहे, ख़ूब पीटते ढोल॥
जन जीवन बेहाल है, संसद में बस शोर।
हित सौरभ बस सोचते, सांसद अपनी ओर॥
संसद में श्रीमान जब, कलुषित हो परिवेश।
कैसे सौरभ सोचिए, बच पायेगा देश॥
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात।
संसद में चलने लगे, थप्पड़, घूसे, लात॥
जनता की आवाज़ का, जिन्हें नहीं संज्ञान।
प्रजातंत्र का मंत्र है, उन्हें नहीं मतदान॥
हमें आज है सोचना, दूर करे ये कीच।
अपराधी नेता नहीं, पहुँचे संसद बीच॥
अपराधी सब छूटते, तोड़े सभी विधान।
निर्दोषी है जेल में, रो रहा संविधान॥
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