हिन्दी
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
लेखनी में आज माँ फिर से वो ही शक्ति भर दे ।
तम रहित मन हो मेरा माँ ऐसी मुझमें ज्योति भर दे ।
हो हमारी भारती की गूँज ही अब विश्व भर में।
देव भाषा हिन्दी की जय सर्वदा हर ओर कर दे।।
विश्व में इस से नहीं उत्तम कोई भी और भाषा।
जैसे बोलो वैसे लिख लो त्रुटि नहीं इसके स्वर में।।
राष्ट्र का गौरव यही है राष्ट्र की भाषा यही है।
हिन्द का अनुराग ये ही सिन्धु सी स्वछन्द कर दे।।
हो हमे गौरव सदा हिन्दी सभी को जोड़ती है।
मान हो इसका हामारे प्राण में रस राग भर दे।।
अपनी भाषा अपनी आशा ये ही तो अपनी परिभाषा।
हर भारती के हृदय में फिर भारती का प्यार भर दे।।
अपनी भाषा अपनी बोली से ही है पहचान अपनी।
हम नमन इसको करें इसकी सुरभि हर ओर भर दें।।
मै "शरण" तेरी रहूँ तेरा ही माँ गुण गान गाऊँ।
विश्व में भारत की गरिमा हिन्दी का प्रकाश कर दे।।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंतर पीड़ा
- अनुल्लिखित
- अभिवादन
- अर्चना के पुष्प
- आस्था
- एक चिंगारी
- एक दीपक
- कठिन विदा
- कदाचित
- काल का विकराल रूप
- कुहासा
- केवल तुम हो
- कौन हो तुम
- चातक सा मन
- छवि
- जो चाहिये
- ज्योति
- तुषार
- तेरा नाम
- दिव्य मूर्ति
- नव वर्ष (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- नवल वर्ष
- नवल सृजन
- पावन नाम
- पिता (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- पुष्प
- प्रलय का तांडव
- प्रवासी
- प्रेम का प्रतीक
- भाग्य चक्र
- मन की बात
- महारानी दमयन्ती महाकाव्य के लोकापर्ण पर बधाई
- याद आई पिय न आये
- लकीर
- लगन
- लेखनी में आज
- वह सावन
- विजय ध्वज
- वीणा धारिणी
- शरद ऋतु (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- श्रद्धा की मूर्ति
- स्मृति मरीचि
- स्वतन्त्रता
- स्वप्न का संसार
- हास्य
- हिन्दी
- होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
- होली आई
- होली में ठिठोली
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं