काल का विकराल रूप
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
"काल का विकराल रूप धारण कर
धरती का वक्ष फाड़ सागर लहरों में छिपा
आया था प्रलय काल, निगल गया जन जीवन
तटवर्ती देशों के अनजाने अनभिज्ञ लोगों को।"
असहाय अबोध बालक छिन गये माताओं से।
कितने ही छूट गये हैं अपने भ्राताओं से।
पशु पक्षी सब समा गये काल के गाल में।
विनाश ने छीन लिये हैं पुष्प लताओं से।
निकोबार अण्डमान का मिट गया अस्तित्व जैसे
तरसी हुई आँखें निर्जीव लाशें तुमसे पूछती हैं।
क्यों ये विनाश क्यूँ ये ज़िन्दगी का परिहास।
हज़ारों सवाल करती हुई ज़िन्दगी सोंचती है।
देवता मान हमने तुम्हें पूजा है हर युग में।
तुमको ही निहारा अपने हर सुख दुख में।
हाय हाय कैसा दुख दाई अन्त कर दिया।
निगल लिया उनको ही तुमने निज मुख में।
मानव ने मानी नहीं है हार किसी युग में।
बढ़ता ही रहता है वह दृढ़ बन हर दुख में।
तुम्हारी ही लहरों पर फिर करेगा राज वह।
तुमको अनुमान नहीं कितनी शक्ति है उसमें।
अश्रु बहाऊँ या शीश झुकाऊँ समझ नहीं पाता,
लीला सब भगवन की न्याय भी तो उसी का है।
हम सब तो भाग्य मान मान लेते है विधना की।
जैसा लिख देता फिर अधिकार न किसी का है।
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