जो चाहिये
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
दीप तो कितने जलाये उम्र भर,
पा सका ना रोशनी जो चाहिये।
नींद को किसने ठगा है उम्र भर,
आ सका ना सपन वो जो चाहिये।
कितने उपवन खोज देखा उम्र भर,
खिल सका न पुष्प वो जो चाहिये।
सीपियों में ढूँढ हारा उम्र भर,
एक मोती ना मिला जो चाहिये।
गगन को तकता रहा हूँ उम्र भर,
वही तारा छिप गया जो चाहिये।
पथ भ्रमित सा मैं रहा हूँ उम्र भर,
कौन पथ बतलाये अब जो चाहिये।
चल पड़ा हूँ नाम ले तेरा निडर,
अब होना होगा वो जो चाहिये।
अब न रोकेंगी मुझे जग की डगर,
वह दिशा मिल जायेगी जो चाहिये।
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