भाग्य चक्र
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
भाग्य का चक्र चलता रहा हर घड़ी
राह में हर कदम पर मुश्किल पड़ी
कुछ भी सोचा नहीं और चलता गया
अंत में हो गयी जीत हासिल बड़ी।
कर्म करता रहा धर्म ले साथ में
भावनाओं की कलियाँ बुलाती खड़ी।
मुझको झंझा झकोरे झुलाते रहे
मुझको कितने प्रलोभन लुभाते रहे
पर मेरा लक्ष्य तो और ही कुछ रहा
मैंने निरखा नहीं वे दिखाते रहे
मुझको तो लक्ष्य की ही लगन थी लगी
दूर पर ज्योति मुझको रिझाती खड़ी।
भाग्य चलता रहा मैं भी चलता रहा
हर समय हर घड़ी पग भी बढ़ता रहा
भाग्य से कर्म की थी ठनी अति घनी
कर्म से भाग्य को मैं बदलता रहा
मेरी निष्ठा ने मुझको बनाया सबल
धीर तो साथ हरदम निभाती अड़ी।
जो विमुख थे मेरे अब मेरे साथ हैं
मेरा उनका ही तो हाथ मे हाथ हैं
राह भीषण थी तो क्या हुआ देख लो
मेरे जीवन की ही तो ये सौगात है
जीत कर मैं समर जब था घर आगया
उसके नैनों ने शान्ति दिलादी बड़ी।
फासिले मिट गये हौसले खिल गये
मेरा उपवन सुरभि ले महकने लगा
मुझको ठग ना सकी ज़िन्दगी फिर कभी
जब से मैं ज़िन्दगी को समझने लगा
मैं भी बुनता रहा उनकी हर एक लड़ी
मुझको आशा निराशा झुलाती खड़ी।
न दरस ही मिला ना ही तृष्णा मिटी
घूँट पर घूँट पी पी के बढ़ती रही
जैसे मरु देश में कोई प्यासा रहे
और जलाशय नज़र ढूँढती ही रहे
एक दशर्न को आँखें लगी ही रहीं
राह में पाने दशर्न बुलाती पड़ी।
कैसे रोकूँ समय को बताओ कोई
कैसे बोलूं मैं इस से बताओ कोई
भाग्य को जो बदल दे है क्या बात
वो आके मेरे हृदय को सुनाओ कोई
मान सम्मान का मुझको है लोभ न
मेरे जीवन ने घुट्टी पिलादी कड़ी।
ज़िन्दगी लेती है हर समय इम्तहां
और हो जाती है इसकी भी इन्तहा
मेरा बल न थका मैं सबल ही रहा
मैंने डटकर दिया इसका भी इमत्त्हां
मैंने सुख दुख का पाठ पढ़ा ही था
हुआ उत्तीर्ण पर थी चुनौती कड़ी।
मेरा अनुराग तो राग गाता रहा
मैं तो रूठे हुये को मनाता रहा
मैंने गीतों मे अपनी भरी आत्त्मा
मैं तो करुणा को अपनी लुटाता रहा
मेरे जीवन की ये अनकही बात है
मैंने गीतों की बुनकर बनादी लड़ी।
मैंने आँसू को बोकर उगाई हँसी
मेरे मन में न अब कोई शंका रही
अश्रु भी जन्मते हैं उसी देह में
जिसमें उनको निभाने की क्षमता रही
मेरा संसार बचपन में ही छिन गया
लेखनी कहने को कुछ लिखाती रही।
प्यार का गाँव था स्नेह का भाव था
हर दिवस हर निशा में भरा भाव था
न थी कुन्ठा कोई न दुराभाव था
सबके हित के लिये सबका सदभाव था
इस समय ने दिखाये हैं कितने सपन
याद आने लगी जो भुलादी घड़ी ।
फिर भी मेरी जनम भूमि है ये नहीं
मात का हाथ है माथ पर अब नहीं
पर विधाता रचित भूमि है हर कहीं
करके नत भाल को पूजता हूँ यही
नित नये मित्र हैं एक नया चित्र है
जोड़ता ही गया और बनादी कड़ी।
हैं यहाँ भी सभी प्रेम के भाव में
दर्द होता है रिस्ते हुये घाव में
यहाँ भी जाती बिवाईं किसी पाँव मे
ज़िन्दगी बीतती धूप मे छाँव में
देश ये आस का मेरे विश्वास का
मुझको इस देश मे शान्ति भाती बड़ी।
भाग्य को है बदलना बहुत ही कठिन
पर नहीं है असंभव अगर ठान लो
कर्म शुभ ही करो धैर्य धर कर सदा
सब मिटेंगी समस्या मेरी मान लो।
प्रात आयेगा सुखमय लिये शुभ घड़ी
ज़िन्दगी होगी तुमको हँसाती खड़ी।
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