होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
खिलौना जो मिला क्यूँ टूट जाता है।
मैंने जिसको अपने लहू से सींचा है
भरी बरसात में वही क्यूँ सूख जाता है ।
मैंने सोचा बहुत और देखा भी बहुत
भरोसा देके अपना क्यूँ लूट जाता है ।
मैंने तो अपनी वफ़ा निबाही हद तक
होके वो बेवफ़ा मुझसे क्यूँ रूठ जाता है ।
चेहरा तो आईना होता है हर इन्सां का
फिर नग़मा वफ़ा कोई क्यूँ झूठ गाता है ।
एक मज़लूम को कैसे काई सताता है
यही ख़्याल क्यूँ न उसकी रूह आता है।
मेरी जानिब से शिकवा शिकायत ही नहीं
फिर भी एक दोस्त छोड़कर क्यूँ दूर जाता है।
मैंने चाहा बहुत कि छोड़ दूँ दामन उसका
पर जुदाई का दर्द आँख क्यूँ भर जाता है।
दिल्लगी ही सही वो बात तो करते हैं मेरी
मेरा ख़्याल ही उन पर यूँ नूर लाता है।
ख़्वाब तो सब ही देखते हैं कभी न कभी
शरण के तस्व्वर में वही क्यूँ रूप आता है।
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