ज्योति
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
दीप की ज्योति प्रखर हो
आज तम से कह रही है
मैं तुम्हार तिमिर जीवन को
प्रकाशित कर रही हूँ।
हर दिये की ज्योति में
स्नेह मेरा ही जला है।
मैं तिमिर में पथिक की
सहचरी बन चल रही हूँ।
तिमिर न हो, ज्योति का
अस्तित्व कैसा सोच देखो
मैं तुम्हारी हर व्यथा को
हर्ष बन कर जल रही हूँ।
आज दीपावली सुहावन
दे रही अह्वान मधुरिम
हर दिये में प्रेम का
संदेश ले मैं जल रही हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंतर पीड़ा
- अनुल्लिखित
- अभिवादन
- अर्चना के पुष्प
- आस्था
- एक चिंगारी
- एक दीपक
- कठिन विदा
- कदाचित
- काल का विकराल रूप
- कुहासा
- केवल तुम हो
- कौन हो तुम
- चातक सा मन
- छवि
- जो चाहिये
- ज्योति
- तुषार
- तेरा नाम
- दिव्य मूर्ति
- नव वर्ष (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- नवल वर्ष
- नवल सृजन
- पावन नाम
- पिता (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- पुष्प
- प्रलय का तांडव
- प्रवासी
- प्रेम का प्रतीक
- भाग्य चक्र
- मन की बात
- महारानी दमयन्ती महाकाव्य के लोकापर्ण पर बधाई
- याद आई पिय न आये
- लकीर
- लगन
- लेखनी में आज
- वह सावन
- विजय ध्वज
- वीणा धारिणी
- शरद ऋतु (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- श्रद्धा की मूर्ति
- स्मृति मरीचि
- स्वतन्त्रता
- स्वप्न का संसार
- हास्य
- हिन्दी
- होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
- होली आई
- होली में ठिठोली
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं