लकीर
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
न आस्माँ बदलता है ना ही ज़मीं बदलती है
लकीर खींच के हक़ीकत नहीं बदलती है।
लहू उनका भी तो है देखो हमारे जैसा ही।
किस लिये खून के दरिया में नाव चलती है॥
तोपों तलवार से न होगा कोई भी मसला हल।
अमन के गीतों से ही ज़िन्दगी सम्हलती है।
आस्माँ के क़हर से डरो छोड़ दो हठ अपनी,
चन्द साँसों के लिये ही ये ज़िन्दगी तो मिलती है॥
क्या मिलेगा तबाह करके तुम्हें उनका घर।
जीत जाने से तबाही तो सिर्फ़ मिलती है।
छुपके झाँका किया एक नन्हाँ फ़रिश्ता तुमको।
आज वो राज़ बयाँ करने को क़लम मचलती है॥
अश्क आँखों में नहीं मुँह में ज़ुबाँ तक न खुली।
जाने किसके लिये वो इन्तज़ार करती है।
अब चिरागाँ कहाँ इस धुन्ध में करेगा कोई,
अब तो हर आशियाँ पे बिजलियाँ ही गिरती हैं॥
मिलन की लगन ने जतन किये तुमसे कितने।
तोड़ हर सरहदो-दीवार सबा चलती है।
ग़ुलों बुलबुल की बात कैसे सभी हैं भूल गये,
"शरण" के ख़्वाब में एक अमन कली खिलती है।
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