कुहासा
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
इस कुहासे में समाये जाने कितने अंग होंगे।
एक उपासी ने सजाये कितने भक्ति रंग होंगे। ।
होके मुकुलित मुकुल बोली हर दिशा में भृंग होगे।
भ्रमर निर्मोही कहाते ले सुरभि क्या वे संग होंगे।।
व्योम में सृष्टि की रचना होम में आहुति का जलना।
सोंचता हर पल यही हूँ क्या कहीं नव रंग होंगे।।
ओ सृजन के रूप कारक हो प्रलय के भी संहारक।
नव सृजन मे सृजन के कितने ही अभिनव रंग होंगे।।
फूल हंसता शूल चुभता है यही जीवन कहानी।
कोई आशीर्वाद पाता और किसी पर व्यंग होंगे। ।
दिवस जाता रात्रि आती दीप की लौ प्रखर होती।
प्राण ले आहुति चढ़ाने प्रेम के ही पतंग होंगे।।
मिलन पथ दुर्गम बहुत है लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा।
आस लेकर प्यास बढ़ती जाने कितने प्रसंग होंगे।।
धैर्य की डोरी पकड़ कर राह कुछ आसान होगी।
नाम जपते गीत गाते जाने कितने ही मलंग होंगे।।
रवि किरण पाकर कुहासा छोड़ता है भ्रमित पथ को।
ज्ञान की एक बूंद पाकर मन सभी मकरंद होंगे।।
अब गूँजती है एक वाणी मेरे अन्तस में सदा ही।
गीत गाऊँगा तुम्हारे स्वर तेरे मेरे छन्द होंगे।।
मन सरोवर में खिलेगा पुन:एक सरसिज निराला।
अष्ट दल में घूमते फिर विरह के ही विहंग होंगे।।
प्रेम कलिका का सभी एक साथ स्वागत ही करेंगे।
ले सुरभि इसकी सभी जग द्वेष से स्वछन्द होंगे।।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अंतर पीड़ा
- अनुल्लिखित
- अभिवादन
- अर्चना के पुष्प
- आस्था
- एक चिंगारी
- एक दीपक
- कठिन विदा
- कदाचित
- काल का विकराल रूप
- कुहासा
- केवल तुम हो
- कौन हो तुम
- चातक सा मन
- छवि
- जो चाहिये
- ज्योति
- तुषार
- तेरा नाम
- दिव्य मूर्ति
- नव वर्ष (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- नवल वर्ष
- नवल सृजन
- पावन नाम
- पिता (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- पुष्प
- प्रलय का तांडव
- प्रवासी
- प्रेम का प्रतीक
- भाग्य चक्र
- मन की बात
- महारानी दमयन्ती महाकाव्य के लोकापर्ण पर बधाई
- याद आई पिय न आये
- लकीर
- लगन
- लेखनी में आज
- वह सावन
- विजय ध्वज
- वीणा धारिणी
- शरद ऋतु (भगवत शरण श्रीवास्तव)
- श्रद्धा की मूर्ति
- स्मृति मरीचि
- स्वतन्त्रता
- स्वप्न का संसार
- हास्य
- हिन्दी
- होके अपना कोई क्यूँ छूट जाता है
- होली आई
- होली में ठिठोली
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं