प्रलय का तांडव
काव्य साहित्य | कविता भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'3 May 2012
रोष भर कर पुन: तांडव
कर गया धरती गगन में।
प्रलय रूपी प्रकृति का
पग बन के कटरीना धरन में।
भवन उजाड़े वृक्ष उखाड़े
हाहाकार मची हर मन में।
जीवन दूभर किया मनुज का
आँसू दीखें हर नयनन में।
त्राहि त्राहि हर ओर मची है
कटरीना के चक्रवात से।
कितने जल समाधि ले सोये
कितने खोये चक्र चलन में।
जल का कोप वेग ले
अतुलित चला मिटाने आह राह को।
ऐसी दुर्गति मनुज मात्र की
ऐसी भीषण प्रलय धरन में।
न्यू ऑरलीन्स औ लूज़ियाना
जल में थे लाचार सरीखे।
सुपर डोम बन गया था
गोबर्धन देखो इस दुख के क्षण में।
लाज बचाई जान बचाई
कितनों की इस सुपर डोम ने।
फटता हृदय निरख यह तांडव
कैसे धीर धरूँ निज मन में।
एक एक तृण चुन चुन कर
कितनों ने नीड़ बनाये होंगे।
उनकी आशा और प्ररेणा का
था पुष्प खिला उपवन में।
बिखर गये सब सपन मिटा
सुन्दर सा उनका संसार।
प्रभु से यही प्रार्थना करता
शान्ति भरे उनके जीवन में।
कवि हृदय द्रवित होता है
प्रलय विलय को निरख निरख।
मेरी लेखनी चलती जाती
शब्द खोजती है उलझन में।
अनुचित उचित नहीं कह सकता
ये मेरे भावों की कृति है।
मन वेदना लिये बैठा है कैसे
गीत लिखूँ धड़कन में।
मैंने तो इस बिरही मन को
बहुत मनाया पर ना माना।
लिये प्रिये की चिन्ता हर पल
सदा सोचता रहता मन में।
अब संयोग कभी होगा क्या
मिलन राह क्या वहीं मिलेगी।
प्रश्न प्रश्न पर प्रश्न वही है
वही प्रश्न आता है मन में।
देख भयंकर समय चक्र मन
मेरा अति ही डरता जाता है।
क्या एक दिन मेरा प्रियतम
भी खो जायेगा इस घन तम में।
नहीं मुझे विश्वास मगर इस
समय समय का क्या कहना।
आँसू ही देखे हैं अब तक
क्या पुष्प खिलेंगे इस उपवन में।
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